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स्वामी समंतभद्र ।
तत्वार्थशास्त्रसे उनके ' तत्त्वार्थाधिगममोक्षशास्त्र'का उल्लेख किया है और इस लिये उक्त पद्यको तत्त्वार्थाधिगमसूत्रका मंगलाचरण माना है तो इससे अष्टसहस्री और आप्तपरीक्षाके उक्त कथनोंका सिर्फ इतना ही नतीजा निकलता है कि समन्तभद्रने उमास्वातिके उक्त पद्यको लेकर उसपर उसी तरहसे 'आप्तमीमांसा' ग्रंथकी रचना की है जिस तरहसे कि विद्यानंदने उसपर 'आप्तपरीक्षा' लिखी है-अथवा यों कहिये कि जिस प्रकार ' आतपरीक्षा की सृष्टि श्लोकवार्तिक भाष्यको लिखते हुए नहीं की गई और न वह श्लोकवार्तिकका कोई अंग है उसी प्रकारकी स्थिति गंधहस्ति महाभाष्यके सम्बंधमें 'आप्तमीमांसा' की भी हो सकती है, उसमें अष्टसहस्री या आप्तपरीक्षाके उक्त वचनोंसे कोई बाधा नहीं आती; * और न उनसे यह लाजिमी आता है कि समूचे तत्त्वार्थसूत्रपर महाभाष्यकी रचना करते हुए 'आप्तमीमांसा' की सृष्टि की गई है और इस लिये वह उसीका एक अंग है। हाँ, यदि किसी तरह पर यह माना जा सके कि 'आप्तपरीक्षा' के उक्त १२३ वें पद्यमें 'शास्त्रकार से समन्तभद्रका अभिप्राय है और इस लिये मंगलाचरणका वह स्तुति पद्य (स्तोत्र ) उन्हींका रचा हुआ है तो 'तत्त्वार्थशास्त्र का अर्थ उमास्वातिका तत्त्वार्थसूत्र करते हुए भी उक्त पद्यके 'प्रोत्थान' शब्द परसे महाभाष्यका आशय निकाला जा सकता है; क्योंकि तत्त्वार्थसूत्रका प्रोत्थान-उसे ऊँचा उठाना या बढ़ानामहाभाष्य जैसे ग्रंथोंके द्वारा ही होता है। और 'प्रोत्थान ' का आशय
__* “समन्तभद्र-भारती-स्तोत्र के निम्न वाक्यसे भी कोई बाधा नहीं आती, जिसमें सांकेतिक रूपसे समन्तभद्रकी भारती (आप्तमीमांसा) को 'गृध्रपिच्छाचार्यके कहे हुए प्रकृष्ट मंगलके आशयको लिये हुए ' बतलाया है
" गृधपिच्छ-भाषित-प्रकृष्ट-मंगवार्षिकाम्।"