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पितृकुल और गुरुकुल। समंतभद्र बहुत ही खास आचार्योमेंसे थे। उनकी कीर्ति उनके गुरुकुल अथवा गण गच्छसे ऊपर है; पितृकुलको भी वह उलंघ गई है। और इस लिये, साधनाभावके कारण, यदि हमें उनके गुरुकुलादिका पूरा पता नहीं चलता तो न सही; हमें यहाँ पर उसकी चिन्ताको छोड़ कर अब आचार्यमहोदयके गुणोंकी ओर ही विशेष ध्यान देना चाहिये-यह मालूम करना चाहिये कि वे कैसे कैसे गुणोंसे विशिष्ट थे और उनके द्वारा धर्म, देश तथा समाजकी क्या कुछ सेवा हुई है।
___* श्रवणबेल्गोलके दूसरे शिलालेखोंमें, और दूसरे स्थानोंके शिखालेखों में भी, कुन्दकुन्दको नन्दिगण तथा दशीय गणका आचार्य लिखा है । कुंदकुंदकी वंशपरम्परामें होनेसे समंतभद्र नन्दिगण अथवा देशीयगणके आचार्य ठहरते हैं। परंतु जैनसिद्धान्त भास्करमें प्रकाशित सेनगणकी पट्टावलीमें आपको सेनगणका आचार्य सूचित किया है । यद्यपि यह पट्टावली पूरी तौर पर पट्टावलीके ढंगसे नहीं लिखी गई और न इसमें सभी आचार्योंका पटक्रमसे उल्लेख है। फिर भी इतना तो स्पष्ट ही है कि उसमें समन्तभद्रको सेनगणके आचार्यों में परिगणित किया है। इन दोनोंके विरुद्ध १०८ नंबरका शिलालेख यह बतलाता है कि नंदि और सेनादि भेदोंको लिये हुए यह चार प्रकारका संघमेद भट्टाकलंकदेवके स्वर्गारोहणके बाद उत्पन्न हुआ है और इससे समंतभद्र न तो नन्दिगणके रहते हैं और न सेनगणके; क्योंकि वे अकलंकदेवसे बहुत पहले हो चुके हैं। अकलंकदेवसे पहले के साहित्यमें इन चार प्रकारके गणोंका कोई उल्लेख भी देखनेमें नहीं आता। इन्द्रनन्दिके 'नीतिसार' और १०५ नंबरके शिलालेखमें इन चारों संघोंका प्रवर्तक ' अर्हद्वलि' आचार्यको लिखा है। परंतु यह सब साहित्य अकलंकदेवसे बहुत ही पीछेका है। इसके सिवाय, तिक्ष्म. कूडलु-नरसीपुर ताल्लुकेके शिलालेख नं. १०५ में ( E. C. III ) समंतभद्रको दामिल संघके अन्तर्गत नन्दि संघकी अरुगल शाखा (अन्वय ) का विद्वान् सूचित किया है। ऐसी हालतमें समंतभद्रके गणगच्छादिका विषय कितनी गड़बड़में है इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं।