________________
स्वामी समन्तभद्र। चारित्रचञ्चुरखिलावनिपालमौलि-,
मालाशिलीमुखविराजितपादपमः ॥ एवं महाचार्यपरंपरायां स्यात्कारमुद्रांकिततत्त्वदीपः । भद्रस्समन्ताद्गुणतो गणीशस्समन्तभद्रोजनि वादिसिंहः॥
शिलालेख नं० ४० (६४)। इस शिलालेखमें जिस प्रकार चंद्रगुप्तको भद्रबाहुका और बलाक'पिच्छको उमास्वातिका शिष्य सूचित किया है उसी प्रकार समंतभद्र,
अथवा कुन्दकुन्द और उमास्वति आचार्योंके विषयमें यह सूचित नहीं किया कि वे किसके शिष्य थे । दूसरे * शिलालेखोंका भी प्रायः ऐसा ही हाल है। और इससे यह मालूम होता है कि या तो लेखकोंको इन आचार्योंके गुरुओं के नाम मालूम ही न थे और या वे गुरु अपने उक्त शिष्योंकी कीर्तिकौमुदीके सामने, उस वक्त इतने अप्रसिद्ध हो गये थे कि उनके नामोंके उल्लेखकी ओर लेखकोंकी प्रवृत्ति ही नहीं हो सकी अथवा उन्होंने उसकी कुछ जरूरत ही नहीं समझी। संभव है कि उन गुरुदेवोंके द्वारा उनकी विशेष उदासीन परिणतिके कारण साहित्यसेवाका काम बहुत कम हो और यही बात बादको समय बीतने पर उनकी अप्रसिद्धिका कारण बन गई हो । परंतु कुछ भी हो इसमें संदेह नहीं कि इस शिलालेखमें, और इसी प्रकारके दूसरे शिलालेखोंमें भी, जिस ढंगसे कुछ चुने हुए आचार्योंके बाद समंतभद्रका नाम दिया है उससे यह बिलकुल स्पष्ट है कि स्वामी __* देखो 'इन्स्क्रिप्शन्स ऐद श्रवणबेल्गोल' नामकी पुस्तक जिसे मिस्टर बी. लेविस राइसने सन् १८८९ में मुदित कराया था, अथवा उसका संशोधितसं. स्करण १९२३ का छपा हुआ। शिलालेखोंके जो नये नंबर कोष्टक आदिमें दिये हैं वे इसी शोधित संस्करणके नम्बर है।