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अन्य-परिचय।
२२३ विद्यानंदाचार्य के बनाये हुए हैं। ये वार्तिकके ढंगसे लिखे गये हैं और 'वार्तिक' ही कहलाते हैं । वार्तिकोंमें उक्त, अनुक्त और दुरुक्त-कहे हुए, विना कहे हुए और अन्यथा कहे हुए-तीनों प्रकारके अर्थोकी चिन्ता, विचारणा अथवा अभिव्यक्ति हुआ करती है। जैसा कि श्रीहेमचंद्राचार्यप्रतिपादित ' वार्तिक के निम्न लक्षणसे प्रकट है,
'उक्तानुक्तदुरुक्तार्थचिन्ताकारि तु वर्तिकम् ।' इससे वार्तिक भाष्योंका परिमाण पहले भाष्योंसे प्रायः कुछ बढ़ जाता है । जैसे सर्वार्थसिद्धिसे राजवार्तिकका और राजवर्तिकसे श्लोकवार्तिकका परिमाण बढ़ा हुआ है । ऐसी हालतमें उक्त तत्त्वार्थसूत्र पर समंतभद्रका ८४ या ९६ हजार श्लोक संख्यावाला भाष्य यदि पहलेसे मौजूद था तो अकलंकदेव और विद्यानंदके वार्तिक भाष्यका अलग अलग परिमाण उससे जरूर कुछ बढ़ जाना चाहिये था, परंतु बढ़ना तो दूर रहा वह उलटा उससे कई गुणा कम है। इससे यह नतीजा निकलता है कि या तो समन्तभद्रने उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्र पर वैसा कोई भाष्य नहीं लिखा-उन्होंने सिद्धान्तग्रंथ पर जो भाष्य लिखा है वही 'गंधहस्ति महाभाष्य' कहलाता होगा-और या लिखा है तो वह अकलंकदेव तथा विद्यानंदसे पहले ही नष्ट हो चुका था, उन्हें उपलब्ध नहीं हुआ।
9 A rule which explains what is said or but imperfectly said and supplies omissions.
-V. S. Apte's dictionary. २ वार्तिकभाष्योंसे भिन्न दूसरे प्रकारके भाष्यों अथवा टीकाओंका परिमाण भी बढ़ जाता है, ऐसा अभिप्राय नहीं है। वह चाहे जितना कम भी हो सकता है।