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ग्रन्थ- परिचय |
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इस उल्लेखसे भी 'देवागम' के एक स्वतंत्र तथा प्रधान ग्रंथ होनेका पता चलता है, और यह मालूम नहीं होता कि गन्धहस्तिमहाभाष्य जिस 'तत्त्वार्थ' ग्रंथका व्याख्यान है वह उमास्वातिका 'तत्त्वार्थसूत्र' है या कोई दूसरा तत्त्वार्थशास्त्र; और इसलिये, इस विषय में जो कुछ कल्पना और विवेचना ऊपर की गई है उसे यथा-संभव यहाँ भी समझ लेना चाहिये । रही ग्रंथ संख्या की बात, वह बेशक उसके प्रचलित परिमाणसे भिन्न है और कर्मप्राभृतटीकाके उस परिमाणसे भी भिन्न है जिसका उल्लेख इन्द्रनन्दी तथा विबुध श्रीधरके 'श्रुतावतार' नामक ग्रंथों में पाया जाता है । ऐसी हालत में यह खोजने की जरूरत है कि कौनसी संख्या ठीक है । उपलब्ध जैनसाहित्य में, किसी भी आचार्यके ग्रंथ अथवा प्राचीन शिलालेख परसे प्रचलित संख्याका कोई समर्थन नहीं होता - अर्थात्, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता जिससे गंधहस्ति महाभाष्य की श्लोकसंख्या ८४ हजार पाई जाती हो; ― बल्कि ऐसा भी कोई उल्लेख देखने में नहीं आता जिससे यह मालूम होता हो कि समन्तभद्रने ८४ हजार श्लोकसंख्याबाला कोई ग्रंथ निर्माण किया है, जिसका संबंध गंधहस्ति महाभाष्य के साथ मिला लिया जाता; और इसलिये महाभाष्यकी प्रचलित संख्याका मूल मालूम न होनेसे उस पर संदेह किया जा सकता है । श्रुतावतार में 'चूडामणि' नामके कनड़ी भाष्यकी संख्या ८४ हजार दी है; परंतु कर्णाटक शब्दानुशासन में भट्टाकलंकदेव उसकी संख्या ९६. हजार लिखते हैं और यह संख्या स्वयं ग्रंथको देखकर लिखी हुई मालूम होती है; क्योंकि उन्होंने ग्रंथको 'उपलभ्यमान ' बतलाया है । इससे श्रतावतार में समंतभद्रके सिद्धान्तागम-भाष्यकी जो संख्या ४८ हजार दी है उस पर भी संदेहको अवसर मिल सकता है, खासकर