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स्वामी समन्तभद्र।
आ रहे हैं । अबतकके मिले हुए उल्लेखों द्वारा प्राचीन जैनसाहित्य परसे इस ग्रंथका जो कुछ पता चलता है उसका सार इस प्रकार है
( १ ) कवि हस्तिमल्लके 'विक्रान्त कौरव' नाटककी प्रशस्तिमें एक पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है
तत्वार्थसूत्रव्याख्यानगंधहस्तिप्रवर्तकः ।
स्वामी समन्तभद्रोऽभूदेवागमनिदेशकः ॥ यही पद्य 'जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय' ग्रंथकी प्रशस्तिमें भी दिया हुआ है, जिसे पं० अय्यपार्यने शक सं० १२४१ में बना कर समाप्त किया था और उसकी किसी किसी प्रतिमें 'प्रवर्तकः' की जगह 'विधायकः' और 'निदेशकः ' की जगह 'कवीश्वरः' पाठ भी पाया जाता है; परंतु उससे कोई अर्थभेद नहीं होता अथवा यों कहिये कि पद्यके प्रतिपाद्य विषयमें कोई अन्तर नहीं पड़ता । इस पद्यमें यह बतलाया गया है कि "स्वामी समन्तभद्र ' तत्त्वार्थसूत्र' के 'गंधहस्ति' नामक व्याख्यान (भाष्य) के प्रवर्तक-अथवा विधायकहुए हैं और साथ ही वे ' देवागम' के निदेशक-अथवा कवीश्वरभी थे।" ___ इस उल्लेखसे इतना तो स्पष्ट मालूम होता है कि समन्तभद्रने 'तत्त्वार्थसूत्र' पर 'गंधहास्त' नामका कोई भाष्य अथवा महाभाष्य लिखा है परंतु यह मालूम नहीं होता कि 'देवागम' (आप्तमीमांसा) उस भाष्यका मंगलाचरण है। 'देवागम' यदि मंगलाचरण रूपसे उस भाष्यका ही एक अंश होता तो उसका पृथक रूपसे नामोल्लेख करनेकी यहाँ कोई जरूरत नहीं थी; इस पद्यमें उसके पृथक् नामनिर्देशसे यह स्पष्ट ध्वनि
१ कवि हस्तिमल्ल विक्रमकी १४ वीं शताब्दीमें हुए हैं।