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प्रन्थ-परिचय ।
२१३ संख्या ८४ हजार है, और उक्त 'देवागम' स्तोत्र ही जिसका मंगलाचरण है । इस ग्रंथकी वर्षोंसे तलाश हो रही है । बम्बईके सुप्रसिद्धदानवीर सेठ माणिकचंद हीराचंदजी जे० पी० ने इसके दर्शन मात्र करा देनेवालेके लिये पाँचसौ रुपये नकदका परितोषिक भी निकाला था, और हमने भी, 'देवागम' पर मोहित होकर, उस समय यह संकल्प किया था कि यदि यह ग्रंथ उपलब्ध हो जाय तो हम इसके अध्ययन, मनन
और प्रचारमें अपना शेष जीवन व्यतीत करेंगे परन्तु आज तक किसी भी भण्डारसे इस ग्रंथका कोई पता नहीं चला। एक बार अखबारोंमें ऐसी खबर उड़ी थी कि यह ग्रंथ आस्ट्रिया देशके एक प्रसिद्ध नगर ( वियना ) की लायब्रेरीमें मौजूद है। और इस पर दो एक विद्वानोंको वहाँ भेजकर ग्रंथकी कापी मँगानेके लिये कुछ चंदे वगैरहकी योजना भी हुई थी, परंतु बादमें मालूम हुआ कि वह खबर गलत थी-उसके मूलमें ही भूल हुई है-और इस लिये दर्शनोत्कंठित जनताके हृदयमें उस समाचारसे जो कुछ मंगलमय आशा बँधी थी वह फिरसे निराशामें परिणत हो गई।
हम जैनसाहित्य परसे भी इस ग्रंथके अस्तित्वकी बराबर खोज करते
नहीं ठहरते-भाग जाते अथवा निर्मद और निस्तेज हो जाते हैं-उसे 'गंधहस्ती' कहते हैं । इसी गुणके कारण कुछ खास खास विद्वान् भी इस पदसे विभूषित रहे हैं । समन्तभद्रके सामने प्रतिवादी नहीं ठहरते थे, यह बात पहले विस्तारके साथ 'गुणादिपरिचय' में बतलाई जा चुकी है। इससे 'गंधहस्ती' अवश्य ही समन्तभद्रका विरुद अथवा विशेषण रहा होगा और इसीसे उनके महाभाष्यको गंधहस्ति महाभाष्य कहते होंगे। अथवा गंधहस्ति-तुल्य होनेसे ही वह गंधहस्ति महाभाष्य कहलाता होगा और इससे यह समझना चाहिये कि वह सर्वोत्तम भाष्य है-दूसरे भाष्य उसके सामने फीके, श्रीहीन और निस्तेज जान पड़ते हैं।