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प्रन्य-परिचय।
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भी महावीर भगवानके वचनोंके तुल्य बतलाया है। इससे पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि यह ग्रंथ कितने अधिक महत्त्वका होगा । दुर्भाग्यसे यह ग्रंथ अभीतक उपलब्ध नहीं हुआ । मालूम नहीं किस भंडारमें बंद पड़ा हुआ अपना जीवन शेष कर रहा है अथवा शेष कर चुका है। इसके शीघ्र अनुसंधानकी बड़ी जरूरत है।
७ तत्वानुशासन। 'दिगम्बरजैनग्रंथकर्ता और उनके ग्रंथ' नामकी सूचीमें दिये हुए समन्तभद्रके ग्रंथोंमें 'तत्त्वानुशासन' का भी एक नाम है । श्वेताम्बर कान्फरेंसद्वारा प्रकाशित 'जैनग्रंथावली' में भी 'तत्त्वानुशासन'को समन्तभद्रका बनाया हुआ लिखा है, और साथ ही यह भी प्रकट किया है कि उसका उल्लेख सूरतके उन सेठ भगवानदास कल्याणदासजीकी प्राइवेट रिपोर्ट में है जो पिटर्सनसाहबकी नौकरीमें थे। और भी कुछ विद्वानोंने, समंतभद्रका परिचय देते हुए, उनके ग्रंथोमें 'तत्त्वानुशासन'का भी नाम दिया है। इस तरह पर इस ग्रंथके अस्तित्वका कुछ पता चलता है । परंतु यह ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ। अनेक प्रसिद्ध भंडारोंकी सूचियाँ देखनेपर भी हमें यह मालूम नहीं हो सका कि यह ग्रंथ किस जगह मौजूद है और न इसके विषयमें हम अभीतक किसी शास्त्रवाक्यादिपरसे यह ही पूरी तौरपर निश्चय कर सके हैं कि समंतभद्रने, वास्तवमें, इस नामका कोई ग्रंथ बनाया है, फिर भी यह खयाल जरूर होता है कि समंतभद्रका ऐसा कोई ग्रंथ होना चाहिये । खोज करनेसे इतना पता जरूर चलता है कि रामसेनके उस 'तत्त्वानुशासन से भिन्न, जो माणिकचंद्रग्रंथमालामें 'नागसेन'के नामसे मुद्रित हुआ है, कोई
१ नागसेन ' नाम गलतीसे दिया गया है । वास्तवमें वह प्रन्य नागसेनके शिष्य 'रामसेन ' का बनाया हुआ है और यह बात हमने एक लेखद्वारा सिद की थी जो जुलाई सन् १९२० के जैनहितैषीमें प्रकाशित हुआ है।