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स्वामी समंतभद्र।
यहाँपर हम सिर्फ इतना ही बतला देना चाहते हैं कि इस ग्रंथपर अभीतक केवल एक ही संस्कृतटीका उपलब्ध हुई है, जो प्रभाचंद्राचार्यकी बनाई हुई है और वह प्रायः साधारण है। हाँ, 'रत्नकरंडकविषमपदव्याख्यान' नामका एक संस्कृत टिप्पण भी इस ग्रंथपर मिलता है, जिसके कर्ताका नाम उस परसे मालूम नहीं हो सका। यह टिप्पण आराके जैनसिद्धान्तभवनमें मौजूद है । कनड़ी भाषामें भी इस ग्रंथकी कुछ टीकाएँ उपलब्ध हैं परंतु उनके रचयिताओं आदिका भी कुछ पता नहीं चल सका । तामिल भाषाका 'अरुंगलछेप्पु' (रत्नकरंडक) ग्रंथ, जिसकी पद्य-संख्या १८० है, इस ग्रंथको सामने रखकर बनाया गया मालूम होता है और कुछ अपवादोंको छोड़कर इसीका प्रायः भावानुवाद अथवा सारांश जान पड़ता है * । परंतु वह कब बना और किसने बनाया, इसका कोई पता नहीं चलता और न उसे तामिल भाषाकी टीका ही कह सकते हैं।
६ जीवसिद्धि। इस ग्रंथका पता श्रीजिनसेनाचार्यप्रणीत 'हरिवंशपुराण' के उस पद्यसे चलता है जो ‘गुणादिपरिचय' में उद्धृत किया जा चुका है । ग्रंथका विषय उसके नामसे ही प्रकट है और वह बड़ा ही उपयोगी विषय है । श्रीजिनसेनाचार्यने समंतभद्रके इस प्रवचनको १ ग्रन्थपरिचय, २ ग्रन्थपर संदेह, ३ ग्रंथके पोंकी जाँच, ४ संदिग्ध पद्य, ५ अधिक पद्योंवाली प्रतियाँ, ६ जाँचका सारांश, ५ टीका और टीकाकार प्रभाचन्द्र।
* यह राय हमने इस ग्रंथके उस अंग्रेजी अनुवादपरसे कायम की है जो गत वर्ष १९२३-२४ के अंग्रेजी जैनगजटके कई अंकोंमें the Casket of Gems नामसे प्रकाशित हुआ है।