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स्वामी समन्तभद्र । मान लिया जाय और यही मानना ठीक हो कि दण्डीकविद्वारा स्तुत श्रीवर्द्धदेव और तुम्बुद्धराचार्य दोनों एक ही व्यक्ति थे तो हमें इस कहनेमें जरौं भी संकोच नहीं होता कि श्रुतावतारमें समन्तभद्रको तुम्बुलुराचार्यके बादका जो विद्वान् प्रकट किया गया है वह ठीक नहीं है; क्योंकि दण्डीके उक्त श्लोकसे श्रीवर्द्धदेव दण्डीके समकालीन विद्वान् मालूम होते हैं, और दण्डी ईसाकी छठी अथवा विक्रमकी सातवीं शताब्दीके विद्वान् थे * | ऐसी हालतमें श्रीवर्द्धदेव किसी तरह पर भी समन्तभद्रसे पहलेके विद्वान् नहीं हो सकते; बल्कि उनसे कई शताब्दी पीछेके विद्वान् मालूम होते हैं।
गंगराज्यके संस्थापक सिंहनन्दी। (च) शिमोगा जिलेके नगर ताल्लुकेमें हूमच स्थानसे मिला हुआ ३५ नम्बरका एक बहुत बड़ा कनड़ी शिलालेख है, जो शक सं० ९९९ का लिखा हुआ है और एपिग्रेफिया कर्णाटिकाकी आठवीं जिल्दमें प्रकाशित हुआ है। इस शिलालेखपरसे मालूम होता है कि भद्रबाहु स्वामीके बाद यहाँ कलिकालका प्रवेश हुआ-उसका वर्तना आरंभ हुआ-गणभेद उत्पन्न हुआ और फिर उनके वंशक्रममें समन्तभद्र स्वामी उदयको प्राप्त हुए, जा 'कलिकालगणधर' और 'शास्त्रकार' थे । समन्तभद्रकी शिष्य-संतानमें सबसे पहले 'शिवकोटि' आचार्य हुए, उनके बाद 'वरदत्ताचार्य, ' फिर ' तत्त्वार्थसूत्र' के कर्ता
___ * देखो लेविस राइसद्वारा संपादित 'इंस्किपशंस ऐट श्रवणबेलगोल' पृष्ठ ४४, १३५; और 'वेबर्स हिस्टरी आफू इंडियन लिटरेचर, पृ० २१३, २३२।
१ मल्लिषेणप्रशस्तिमें आर्यदेवको 'राद्धान्त कर्ता' लिखा है और यहाँ 'तत्त्वार्थसूत्रकर्ता।' इससे राधान्त ' और 'तत्त्वार्थसूत्र' दोनों एक ही ग्रंथके नाम मालूम होते है।