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समय-निर्णय ।
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वर्द्धदेवको 'चूडामणि' नामक सेव्य काव्यका कवि बतलाया है और उनकी प्रशंसामें दण्डी कविद्वारा कहा हुआ एक श्लोक भी उद्धृत किया है,
यथा
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" चूडामणिः कवीनां चूडामणि- नाम-सेव्यकाव्यकविः । श्रीवर्द्धदेव एव हि कृतपुण्यः कीर्तिमाह ॥ "
य एवमुपश्लोकितो दण्डिना
" जहोः कन्यां जटाग्रेण बभार परमेश्वरः । श्रीवर्द्धदेव संधत्से जिह्वाग्रेण सरस्वतीं । "
जान पड़ता है इतने परसे ही- प्रथके 'चूडामणि' नामकी समानताको लेकर ही — तुम्बुल्लूराचार्य और श्रीवर्द्धदेवको एक व्यक्ति करार दिया गया है । परन्तु राजावलिकथे और कर्णाटकशब्दानुशासनमें 'चूडामणि' को जिस प्रकार से एक व्याख्यान ( टीकाग्रंथ ) प्रकट किया है उस प्रकारका उल्लेख शिलालेख में नहीं मिलता, शिलालेख में स्पष्ट रूपसे उसे एक ‘सेव्य काव्य' लिखा है और वह काव्य कनड़ी भाषाका है ऐसा भी कुछ सूचित नहीं किया है । इसके सिवाय राजाव1 लिकथे आदिमें उक्त व्याख्यानके साथ श्रीवर्द्धदेव के नामका कोई उल्लेख भी नहीं है । इस लिये दोनोंको एक ग्रंथ मान लेना और उसके आधापर तुम्बुद्धराचार्यका श्रविर्द्धदेवके साथ समीकरण करना संदेह से खाली नहीं है । आश्चर्य नहीं जो 'चूडामणि' नामका कोई जुदा ही उत्तम संस्कृत काव्य हो और उसीको लेकर दण्डीने, जो स्वयं संस्कृत भाषा के महान् कवि थे, श्रीवर्द्धदेव की प्रशंसामें उक्त श्लोक कहा हो । परन्तु यदि यही
१ अर्थात् — हे श्रीवर्द्धदेव ! महादेवने तो जटाप्रमें गंगाको धारण किया था और तुम सरस्वतीको जिह्वाग्रमें धारण किये हुए हो ।