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पितृकुल और गुरुकुल । थे और धार्मिकजीवन व्यतीत करते थे; उन्हें अधिक समयतक अपनी देशीय रियासतमें रहनेकी भी इजाजत नहीं होती थी * | और यह एक चर्या थी जिसे भारतकी, खासकर बुद्धकालीन भारतकी, धार्मिक संस्थाने छोटे पुत्रोंके लिये प्रस्तुत किया था । इस चर्यामें पड़ कर योग्य आचार्य कभी कभी अपने राजबन्धुसे भी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त करते थे। संभव है कि समंतभद्रको भी ऐसी ही किसी परिस्थितिमेंसे गुजरना पड़ा हो; उनका कोई बड़ा भाई राज्याधिकारी हो, उसे ही पिताकी मृत्यु पर राज्यासन मिला हो, और इस लिये समंतभद्रने न तो राज्य किया हो और न विवाह ही कराया हो; बल्कि अपनी स्थितिको समझ कर उन्होंने अपने जीवनको शुरूसे ही धार्मिक साँचेमें ढाल लिया हो; और पिताकी मृत्यु पर अथवा उससे पहले ही अवसर पाकर आप दीक्षित हो गये हों; और शायद यही वजह हो कि आपका फिर उरगपुर जाना और वहाँ रहना प्रायः नहीं पाया जाता । परंतु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि, आपकी धार्मिक परिणतिमें कृत्रिमताको जरा भी गंध नहीं थी। आप स्वभावसे
* इस दस्तूरका पता एक प्राचीन चीनी लेखकके लेखसे मिलता है ( Matwan-lin,cited in Ind. Ant. IX, 22. देखो, विन्सेण्ट स्मिथकी अली हिस्ट्री ऑफ इंडिया ' पृ० १८५, जिसका एक अंश इस प्रकार है--
An ancient Chinese writer assures us that 'according to the laws of India, when a king dies, he is succeeded by his eldest son (Kumărarăjă ); the other sons leave the family and enter a religious life, and they are no longer allowed to reside in their native kingdom.'