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स्वामी समन्तभद्र । मृगेशवर्मा, पौत्रका रविवर्मा, प्रपौत्रका हरिवर्मा और पिताका नाम काकुस्थवर्मा था; क्योंकि काकुत्स्थवर्मा, मृगेशवर्मा और हरिवर्माके जो दानपत्र जैनियों अथवा जैन संस्थाओंको दिये हुए हलसी और वैजयन्तीके मुकामोंपर पाये जाते हैं उनसे इस वंशपरम्पराका पता चलता है* | इसमें संदेह नहीं कि प्राचीन कदम्बवंशी राजा प्रायः सब जैनी हुए हैं
और दक्षिण ( बनवास ) देशके राजा हुए हैं; परंतु इतने परसे ही, नामसाम्यके कारण, यह नहीं कहा जा सकता कि शांतिवर्मा कदम्ब
और शांतिवर्मा समंतभद्र दोनों एक व्यक्ति थे। दोनोंको एक व्यक्ति सिद्ध करनेक लिये कुछ विशेष साधनों तथा प्रमाणोंकी जरूरत है जिनका इस समय अभाव है। हमारी रायमें, यदि समंतभद्रने विवाह कराया भी हो तो वे बहुत समय तक गृहस्थाश्रममें नहीं रहे हैं, उन्होंने जल्दी ही, थोड़ी अवस्थामें, मुनि दीक्षा धारण की है और तभी वे उस असाधारण योग्यता और महत्ताको प्राप्त कर सके हैं जो उनकी कृतियों तथा दूसरे विद्वानोंकी कृतियोमे उनके विषयके उल्लेखवाक्योंसे पाई जाती है और जिसका दिग्दर्शन आगे चल कर कराया जायगा । ऐसा मालूम होता है कि समन्तभद्रने बाल्यावस्थासे ही अपने आपको जैनधर्म और जिनेन्द्र देवकी सेवाके लिये अर्पण कर दिया था, उनके प्रति आपको नैसर्गिक प्रेम था और आपका रोम रोम उन्हींके ध्यान और उन्हींकी वार्ताको लिये हुए था । ऐसी हालतमें यह आशा नहीं की जा सकती कि आपने घर छोड़नेमें विलम्ब किया होगा ।
भारतमें ऐसा भी एक दस्तूर रहा है कि, पिताकी मृत्युपर राज्यासन सबसे बड़े बेटेको मिलता था, छोटे बेटे तब कुटुम्बको छोड़ देते ___ * देखो 'स्टडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म' नामकी पुस्तक, भाग दूसरा,
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