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________________ १७० स्वामी समंतभद्र। होकर वीतरागचरित्रकी ओर प्रवृत्त होते हैं । ऐसी हालतमें पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि शिवकुमार महाराजकी स्थिति कितनी संदिग्ध है। दूसरे, शिवकुमारका ‘शिवमृगेशवर्मा' के साथ जो समीकरण किया गया है उसका कोई युक्तियुक्त कारण भी मालूम नहीं होता। उससे अध्छा समीकरण तो प्रोफेसर ए० चक्रवर्ती नायनार, एम० ए०, एल. टी०, का जान पड़ता है जो कांचीके प्राचीन पल्लवराजा "शिवस्कन्दव. र्मा' के साथ किया गया है* ; क्योंकि 'स्कन्द ' कुमारका पर्याय नाम है और एक दानपत्रमें उसे 'युवामहाराज' भी लिखा है जो ' कुमारमहाराज' का वाचक है; इस लिये अर्थकी दृष्टिसे शिवकुमार और शिवस्कन्द दोनों एक जान पड़ते हैं। इसके सिवाय शिवस्कन्दका 'मयिदाबोल' वाला दानपत्र, अन्तिम मंगल पद्यको छोड़ कर, प्राकृत भाषामें लिखा हुआ है और उससे शिवस्कन्दकी दरबारी भाषाका प्राकृत होना पाया जाता है जो इस ग्रंथकी रचना आदिके साथ शिवस्कन्दका सम्बन्ध स्थापित करने के लिये ज्यादा अनुकूल जान पड़ती है। साथ ही, शिवस्कन्दका समय भी शिवमृगेशसे कई शताब्दियों पहलेका अनुमान किया गया है। । इसलिये पाठक महाशयका उक्त समीकरण ___ * देखो 'पंचास्तिकाय ' के अंग्रेजी संस्करणकी प्रो० ए० चक्रवर्ती द्वारा लिखित 'ऐतिहासिक प्रस्तावना' ( Historical Introduction ), सन् १९२०। + चक्रवर्ती महासयने, कुन्दकुन्दका अस्तित्वसमय ईसासे कई वर्ष पहलेसे प्रारंभ करके, उन्हें ईसाकी पहली शताब्दीके पूर्वार्धका विद्वान् माना है, और इस लिये उनके विचारसे शिवस्कंदका समय ईसाकी पहली शताब्दी होना चाहिये; परन्तु एक जगह पर उन्होंने ये शब्द भी दिये हैं It is quite possible therefore that this Sivaskanda of Conjeepuram or one of the predecessor of the
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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