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समय-निर्णय । तदुराग्रहः परित्यक्तसमस्तशत्रुमित्रादिपक्षपातेनात्यन्तमध्यस्थो भूत्वा धर्मार्थकामेभ्यः सारभूतामत्यन्तात्महितामविनश्वरां पंचपरमेष्ठिप्रसादोत्पमा मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः श्रीवर्द्धमानस्वामितीर्थकरपरमदेवप्रमुखान् भगवतःपंचपरमेष्ठिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाश्रयामीति प्रतिज्ञा करोति
इस प्रस्तावनाके बाद मूल ग्रंथकी मंगलादिविषयक पाँच गाथाएँ एक साथ दी हैं जिनमेंसे पिछली दो गाथाएँ इस प्रकार हैं
किच्चा अरहंताणं सिद्धाणं तह णमो गणहराणं । अज्झावयवग्गाणं साहूणं चेव सव्वेसि ॥४॥ तेसिं विसुद्धदसणणाणपहाणासमं समासेज्ज ।
उवसंपयामि सम्म जत्तो णिवाणसंपत्ती ॥५॥ इन गाथाओंमें श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने बतलाया है कि 'मैं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुओं (पंचपरमेष्ठियों ) को नमस्कार करके और उनके विशुद्ध दर्शनज्ञानरूपी प्रधान आश्रमको प्राप्त होकर (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानसे सम्पन्न होकर) उस साम्यभाव (परम-वीतरागचारित्र ) का आश्रय लेता हूँ-अथवा उसे सम्पादन करता हूँ जिससे निर्वाणकी प्राप्ति होती है।' और इस प्रकारकी प्रतिज्ञाद्वारा उन्होंने अपने ग्रंथके प्रतिपाद्य विषयको सूचित किया है। अब इसके साथ टीकाकारकी उक्त प्रस्तावनाको देखिये, उसमें यही प्रतिज्ञा शिवकुमारसे कराई गई है, और इस तरह पर शिवकुमारको मूलग्रंथका कर्ता अथवा प्रकारान्तरसे कुन्दकुन्दका ही नामान्तर सूचित किया है। साथ ही शिवकुमारके जो विशेषण दिये हैं वे एक राजाके विशेषण नहीं हो सकते-वे उन महामुनिराजके विशेषण हैं जो सरागचारित्रसे भी उपरत