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समय-निर्णय ।
अपने ग्रंथको प्रायः अलग रक्खा है, उन्होंने सामान्यरूपसे प्रमाणनयकी उस प्रसिद्ध व्यवस्थाका ही इस ग्रंथमें कीर्तन किया है जिसे सब लोग व्यवहारमें लाते हैं x, और इस लिये भी यह पद्य ग्रंथमें उद्धृत ही जान पड़ता है। यदि सचमुच ही ग्रंथकारने, ग्रंथके आठवें पद्यमें दिये हुए वाक्यके स्वरूपका समर्थन करनेके लिये इस पद्यको ' उक्तं च ' रूपसे उद्धृत किया हो तो इस कहनेमें कोई संकोच नहीं हो सकता कि सिद्धसेन अवश्य ही समंतभद्रके बाद हुए हैं । परंतु, जहाँ तक हम समझते हैं, सिद्धसेन दिवाकर जिस टाइपके विद्वान थे और जिस ढंग ( पद्धति ) से उन्होंने अपने ग्रंथको प्रारंभ और समाप्त किया है उस परसे सिद्धसेन द्वारा इस पद्यके उद्धृत किये जानेकी बहुत ही कम संभावना पाई जाती है-इस बातका खयाल भी नहीं होता कि सिद्धसेन जैसे विद्वानने अपने ऐसे छोटेसे सूत्रग्रंथमें, एक दूसरे विद्वानके वाक्यको 'उक्तं च' रूपसे उद्धृत करना उचित समझा हो। हमारी रायमें यह पद्य या तो ग्रंथकी किसी दूसरी पुरानी टीकामें, 'वाक्य' की व्याख्या करते हुए, उद्धृत किया गया है और या किसी विद्वानने ८ वें अथवा १० वें पद्यमें आए हुए 'वाक्य' शब्दपर टिप्पणी देते हुए वहाँ उद्धृत किया है, और उसी टीका या टिप्पणवाली प्रतिपरसे मूल ग्रंथकी नकल उतारते हुए, लेखकोंकी असावधानी अथवा नासमझीसे, यह ग्रंथमें प्रक्षिप्त हो गया है और ग्रंथका एक अंग बन गया है । किसी पद्यका इस तरह पर प्रक्षिप्त होना कोई असाधारण बात नहीं है-बहुधा ग्रंथोंमें इस प्रकारसे प्रक्षिप्त हुए पद्योंके कितने ही उदाहरण पाये जाते हैं । इस
x-प्रमाणादिव्यवस्थेयमनादिनिधनास्मिका ।
सर्वसंव्यवहर्तृणां प्रसिदापि प्रकीर्तिता ॥ ३२ ॥