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समय-निर्णय । ५५६ (ई० सन् ६३४) है जो रविकीर्तिके उक्त शिलालेखका समय है, तो यह बात आपके उस कथनके विरुद्ध पड़ती है जिसमें आपने, पुस्तकके पृष्ठ ३०-३१ पर, यह सूचित करते हुए कि समंतभद्रके बाद बहुतसे जैन मुनियोंने अन्यधर्मावलम्बियोंको स्वधर्मानुयायी बनानेके कार्य (the work of proselytism) को अपने हाथमें लिया है, उन मुनियोन, प्रधान उदाहरणके तौर पर, सबसे पहले गंगवाड़ि (गंगराज्य) के संस्थापक सिंहनंदि' मुनिका और उसके बाद 'पूज्यपाद,' 'अकलंकदेव के नामोंका उल्लेख किया है। क्योंकि सिंहनदिमुनिका अस्तित्वसमय जैसा कि पहले जाहिर किया जा चुका है, कोगुणिवर्माके साथ साथ ईसाकी दूसरी शताब्दीका प्रारंभिक अथवा पूर्व भाग माना जाता है और पूज्यपाद भी गोविन्द प्रथमके उक्त समयसे प्रायः एक शताब्दी पहले हुए हैं। इसलिये या तो यही कहना चाहिये कि समंतभद्र सिंहनदिसे पहले ( ईसाकी पहली या दूसरी शताब्दीमें ) हुए हैं और या यही प्रतिपादन करना चाहिये कि वे प्राचीन राष्ट्रकूटोंके समकालीन ( ईसाकी प्राय: सातवीं शताब्दीके पूर्वार्ध अथवा आठवीं शताब्दीके उत्तरार्धवर्ती) थे। दोनों बातें एकत्र नहीं बन सकतीं । जहाँ तक हम समझते हैं आय्यंगर महाशयने भी लेविस राइस साहबके अनुसार, समंतभद्रका अस्तित्वसमय सिंहनंदिसे पहल ही माना है और प्राचीन राष्ट्रकूटोंके समकालीनवाला उनका उल्लेख किसी गलती अथवा भूल पर अवलम्बित है। यही वजह है जो उन्होंने वहाँ पर शक संवत ६० वाले जैनियोंके साम्प्रदायिक कथनको भी बिना किसी प्रतिवादके स्थान दिया है। यदि ऐसा नहीं है, बल्कि
* देखो पिछला यह 'फुट नोट' जिसमें कोंगुणिवर्माका समय शक सं० २५ दिया है।