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स्वामी समंतभद्र। किया है और दूसरे अर्थमें वही समंतभद्रदेव 'परमात्मा का विशेषण किया गया है । यथा---
समन्तभद्रदेवाय परमार्थविकल्पिने।
समन्तभद्रदेवाय नमोस्तु परमात्मने । इन सब बातोंस यह बात और भी दृढ़ हो जाती है कि उक्त 'यतिपति' से समन्तभद्र खास तौर पर अभिप्रेत हैं । अस्तु; उक्त यतिपतिके विशेषणोंमें 'भेत्तारं वसुपालभावतमसः' भी एक विशेषण है, जिसका अर्थ होता है 'वसुपालक भावांचकारको दूर करनेवाले' | 'वसुपाल' शब्द सामान्य तौरसे 'राजा'का वाचक है और इस लिये उक्त विशेषणसे यह मादम होता है कि संनंतभद्रस्वामीने भी किसी राजाके भावधिकारको दूर किया है । बहुत संभव है कि वह राजा शिवकोटि' ही हो, और वही समंतभद्र का प्रधान शिष्य हुआ हो । इसके सिवाय, 'वसु' शब्दका अर्थ 'शिव' और 'पाल' का अर्थ 'राजा' भी होता है और इस तरहपर ' वसुपाल' से शिव कोटि राजाका अर्थ निकाला जा सकता है; परंतु यह कल्पना बहुत ही क्लिष्ट जान पड़ती है और इस लिये हम इसपर अधिक जोर देना नहीं चाहते।
ब्रह्म नेमिदत्तके 'आराधना-कथाकोश' में भी 'शिवकोटि' राजाका उल्लेख है-उसके शिवालयमें शिवनैवद्यसे 'भस्मक' व्यापिकी शांति और चंद्रप्रभ जिनेंद्रकी स्तुति पढ़ते समय जिनबिम्बकी प्रादुर्भूतिका उलेख है साथ ही, यह भी उल्लेख है कि शिवकोटि
१ श्रावद्धमानस्वामीने राजा श्रेणिकके भावधिकारको दूर किया था।
२ ब्रह्म नेमिदत्त भट्टारक मल्लिभूषणके शिष्य और विक्रमकी १६ वीं शताब्दीके विद्वान् थे। आपने वि. सं. १५८५ में श्रीपालचरित्र बनाकर समाप्त किया ह । बाराधना कथाकोश भी उसी वकके करीबका बना हुआ है।