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स्वामी समन्तभद्र ।
* भीमलिंग' नामक शिवालयमें ही, जाकर उन्होंने उसे आशीर्वाद दिया; राजा उनकी भद्राकृति आदिको देखकर विस्मित हुआ और उसने उन्हें 'शिव' समझकर प्रणाम किया; धर्मकृत्योंका हाल पूछे जाने पर -राजाने अपनी शिवभक्ति, शिवाचार, मंदिरनिर्माण और भीमलिंगके मंदिरमें प्रतिदिन बारह खंडुग परिमाण तंडुलान विनियोग करनेका हाल उनसे निवेदन किया। इस पर समंतभद्रने, यह कह कर कि ' मैं तुम्हारे इस नैवद्यको शिवार्पण करूँगा, उस भोजनके साथ मंदिरमें अपना आसन ग्रहण किया, और किवाड़ बंद करके सबको चले जानेकी आज्ञा की। सब लोगोंके चले जाने पर समन्तभद्रने शिवार्थ जठराग्निमें उस भोजनकी आहुतियाँ देनी आरंभ की और आहुतियाँ देते देते उस भोजनमेंसे जब एक कण भी अवशिष्ट नहीं रहा तब आपने पूर्ण तृप्ति लाभ करके, दरवाजा खोल दिया। संपूर्ण भोजनकी समाप्तिको देखकर राजाको बड़ा ही आश्चर्य हुआ। अगले दिन उसने और भी अधिक भक्तिके साथ उत्तम भोजन भेट किया परंतु पहले दिन प्रचुरपरिमाणमें तृप्तिपर्यंत भोजन कर लेनेके कारण जठराग्निके कुछ उपशांत होनेसे, उस दिन एक चौथाई भोजन बच गया, और तीसरे दिन आधा भोजन शेष रह गया । समंतभद्रने साधारणतया इस शेषानको
१ 'खंडग' कितने सेरका होता है, इस विषयमें वर्णी नेमिसागरजीने, पं. शातिराजजी शास्त्री मैसूरके पत्राधार पर हमें यह सूचित किया है कि बेंगलोर प्रान्तमें २०० सेरका, मैसूर प्रान्तमें १८० सेरका, हेगडदेवनकोटमें ८. सेरका और शिमोगा डिस्ट्रिक्टमें ६० सेरका खंडग प्रचलित है, और सेरका परिमाण सर्वत्र ८० तोलेका है। मालूम नहीं उस समय खास कांचीमें कितने सेरका संडग प्रचलित था। संभवतः वह ४० सेरसे तो कम न रहा होगा।
२ 'शिवार्पण' में कितना ही गूढ अर्थ संनिहित है।