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मुनि-जीवन और आपत्काल ।
नका कोई प्रबंध न करना पड़े और भोजन भी पर्याप्त रूपमें उपलब्ध होता रहे।"
यही सब सोचकर अथवा इसी प्रकारके बहुतसे ऊहापोहके बाद आपने अपने दिगम्बर मुनिवेषका आदरके साथ त्याग किया और साथ ही, उदासीन भावसे, अपने शरीरको पवित्र भस्मसे आच्छादित करना आरंभ कर दिया। उस समयका दृश्य बड़ा ही करुणाजनक था । देहसे भस्मको मलते हुए आपकी आँखें कुछ आई हो आई थीं। जो आँखें भस्मक व्याधिकी तीव्र वेदनासे भी कभी आई नहीं हुई थीं उनका इस समय कुछ आई हो जाना साधारण बात न थी। संघके मुनिजनोंका हृदय भी आपको देखकर भर आया था और वे सभी भावीकी अलव्य शक्ति तथा कर्मके दुर्विपाकका ही चिन्तवन कर रहे थे। समंतभद्र जब अपने देहपर भस्मका लेप कर चुके तो उनके बहिरंगमें भस्म और अंतरङ्गमें सम्यग्दर्शनादि निर्मल गुणोंके दिव्य प्रकाशको देखकर ऐसा मालूम होता था कि एक महाकान्तिमान रत्न कर्दमसे लिप्त हो रहा है और वह कर्दम उस रत्नमें प्रविष्ट न हो सकनेसे उसका कुछ भी विगाड़ नहीं सकता* अथवा ऐसा जान पड़ता था कि समंतभद्रने अपनी भस्मकाग्निको भस्म करने-उसे शांत बनाने के लिये यह 'भस्म' का दिव्य प्रयोग किया है। अस्तु । संघको अभिवादन करके अब समंतभद्र एक वीर योद्धाकी तरह, कार्यसिद्धिके लिये, 'मणुवकहल्ली से चल दिये ।। _ 'राजावलिकथे' के अनुसार, समंतभद्र मणुवकहल्लीसे चलकर 'कांची' पहुँचे और वहाँ 'शिवकोटि' राजाके पास, संभवतः उसके
* अन्तःस्फुरितसम्यक्त्वे पाहिप्तिकुलिंगकः । शोमितोऽसौ महाकान्तिः कदमाक्तो मणियथा ॥
-मा. कबाकोश।