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________________ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रमरि घटतं नाम शेप हो गई है। इस जाति के विपय मे हमारा एक स्वतन्त्र लेख 'ओसवाल नवयुवक' के वर्प ७ अंक ६ मे प्रकाशित हुआ था, पाठकों के अवलोकनार्थ उसे परिशिष्ट में दिया जाता है। २ श्रीजिनचन्द्रसरिजी के ललाट मे मणि' थी और उसी के कारण उनकी प्रसिद्धि 'मणिधारीजी' के नाम से हुई है। इस मणि के विषय में पट्टावलीकारों का कहना है कि सरिजी ने अपने - - १ मबत् १४१२ को गजगृह प्रशस्ति में इसका उल्लेस इस प्रकार पाया जाता है : तत पर श्रीजिनचन्द्रमविभूव निमगगुणास्तभूरि चिन्तामणिभलतले यहीयेऽध्युवास वामादिव भाग्यल म्या ॥२२॥ (प्राचीन-जन-लेख-मग्रह, लेखाक ३८०) इसके पीछे का उल्लेख हमारे 'एतिहामिक-जैन-काव्य-सग्रह पृ. ४६ मे प्रकाशित खरतरगच्छ पट्टावली में, जो कि श्रीजिनभद्रसरिजी के समय में रची गई थी, मिलता है "नरमणि ए जासु निलाड़ि, मलहलह जेम गयणहि दिणदो" 'बन्तरगच्छ पट्टावली सग्रह' में प्रकाशित 'मूरि परम्परा प्रशस्ति' एव पट्टावली त्रय में इसका वर्णन विगेप रूप से मिलता है। लगभग उमी प्रकार का वर्णन श्रीललितविजयजी विरचित यशोभद्रसरि चरित्र में उन आचार्यश्री के सम्बन्ध में पाया जाता है। इसकी समानता बतलाने के लिए उस ग्रन्य से आवश्यक अवतरण यहा दिया जाता है -
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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