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4 अथ श्री संघपट्टक -
॥ मूल काव्यम् ॥
निर्वाहार्थिनमुकितं गुणलवैरज्ञातशीलान्वयं, ताहग्वंशजतद्गुणेन गुरुणा स्वार्थाय मुंगीकृतम् ॥ यद्विख्यातगुणन्वयाच्यपि जना लग्नोग्रगच्छग्रदा, देवेभ्योऽ धिक्रमर्च्चयंति मढ़तो मोद्स्य तनितम् ॥ १३ ॥
( २८१ )
टीका :-- निर्वाहार्थिनं केवलं उदरभरणप्रयोजनंनप संसार निस्तार कांक्षिणं, ब्रजितं हीनं गुणलवैः दमा, दिलेशैरपि ॥ प्रब्रज्यायोग्यो हि पुरुषः कमादि गुणवान् भवति ॥ यक्तं !! प्रवजाए जोग्गा, श्रारियदेसंमि जे समुप्पन्ना। जाइकुले हि वि सिहा तह खी एप्पायकम्ममला ॥ एवंपयइए च्चियश्रवगयसंसार निग्गुए सहावा ॥ तत्तो रित्तापय एकसायप्पहासाय.
अर्थः- जे श्रा प्रकारनो शिश्य केवल नदर नखानुंज जेने प्रयोजन बे एवो पण संसरनो निस्तार करवानी जेने इवा नथी एवोन वळी कमादि गुणनो लेश करीने पण रहित बे एवोने प्रवज्या योग्य जे पुरुष ते तो कमादि गुणवाळो जोइए, जे माटे शास्त्रमां क जे, जे श्रार्य देशमां उत्पन्न थयो होय ने जाति तथा कुल ए वे सारां होय तथा जेनो कर्ममल बहुधानाश पामेलो होय ने जेणे संसारनो गुण रहित स्वभाव जाएयो बे ने जेना कषाय ओग थएला एवा गुणवालो पुरुष दीक्षाने योग्य बे.
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