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8. अथ श्री संघपट्टकः
(२१७)
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अर्थः ते कही देखामे जे जे नित्ये जगवाननी समीप शृं. गार रसथी गान करती ने नृत्य करती जे वेश्यान तेना शरीरनो विलास तथा कटाक्ष तेनुं देखq तथा स्तनकळशनुं देखq इत्यादिके करीने त्यां रहेनार आ काळना मुनिने कामना विकाररुपी अंगारा अतिशे घणा केम दि दीप्यमान नहि थाय ? थशेज माटे तेमांथी श्रा निर्धार प्राप्त योजे ज्यां बे वस्तुनो सरखो दोष प्राप्त थयो ने परिहार पण सरखो प्राप्त थयो तेवा अर्थना विचार करवामां एक पदार्थनो पण निर्धार थाय नहि जे आ स्थान ग्रहण करवा योग्य डे ने था स्थान परिहरवा योग्य बे.
टीका:-अयंच विशेषः॥ अस्मत्पदे स्त्रीसंसक्तपरगृहे कदाचिछसतामप्युक्तदोषासनवः तत्र यतनानिधानात् ॥नवत् पोतु चैत्यवासस्य सर्वथा वर्जनीयवेन क्वचिदपियतनाननि-- धाना देतद्दोष पोष:केन वार्येत ॥
अर्थ:--माटे तेवी जगाए सामान्य विशेषनी कल्पना करवी जोइए, तेमां श्रमारो जे पद घरघरमां निवास करवारुपी तेमां कदापि स्त्रीनो सम्बन्ध थाय त्यारे तेमां निवास करनार मुनियोने पूर्वे कह्यो जे स्त्रीउँना संबंधरुपी दोष तेनो संभव नथी, केम जे तेमां तो जतनानु केवापणुं ने माटे ॥ ने तमारो पक्ष जे चैत्यवास करवो तेनुं तो सर्वथा त्याग करवायएं , माटे कोई शास्त्रमा तेमां रहे. नारने जतना करवानुं नथी माटे ए दोष घणो पुष्ट थयो तेनं कोण निवारण करी शके.