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-8. अथ श्री संघपट्टका
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लौकिक न्यायथी तथा एवमादि केहेतां था कडं इत्यादि श्रागम वचनना प्रमाणपणाथी ए चैत्यवासने श्रागमोक्तपणुं जे एम निश्चय करीए बीए.
टीका-तथा च प्रयोगः ॥ चैत्यनिवास श्दानीतनमुनीना मुचित आगमोक्तत्वात् ॥ चैत्यवंदनवत्. ॥ नन्वेवमपि सिकांतान साक्षात् चैत्यवासः सिष्यति॥ विधेयतया तस्य, क्वचिदप्यननिधानादिति चेत् । सत्यमेवं तर्हि गीतार्थाचरि
तत्वा दयमुपपत्स्यते ॥ तथाच साधूनां जिनन्नवनवासो • विधेयः । गीतार्थाचरितत्वात् । चतुर्थ्यां पर्युषणापर्ववत् . नचायमसिद्धों हेतुः ॥ गीतार्थाचरितत्वस्योजयत्रापि प्रती
तत्वात् ॥ तथाहि ॥ श्रीमदार्यरक्षितपादैनगवति महावीरे निश्रेयससौधमध्यासीने गीतार्थानां 'बलमेधासंहननधैर्यादिहानि पृष्टवंशादिसहितवसतिव्यवछेदं चोपलच्य चैत्यवासो यतीनामाचरितः. . . . . . . . . . . . . . .
अर्थः-ते उपर अनुमान प्रयोग करी देखामे जे जे साधुये जिनलुवनमा वास करवो केम जे गीतार्थ पुरुषोए आचर्यो ने ए हेतु माटे चोथने विषे पर्युषणा'पर्व करवानी पेठे. एटले जेम चोथने विषे गीतार्थ पुरुषे पर्युषणा पर्व कयु ले. ते.साधुने करवा योग्य डे तेम चैत्यवास पण करवा योग्य , ने श्रा हेतु अंसिक पण नथी केम जे गीतार्थ पुरुषे जे आचर्यु ते वादि प्रतिवादि ए बेने प्रसिद्ध पणे मानवा योग्य ॥ ते देखामे जे जे नगवान् महावीर स्वामी मोक्षरूपी महेलमां पधार्या पठी श्री आर्यरक्षित आचार्ये गीतार्थ पुरुषनां वलबुद्धि, शरीरनां संघयण, धैर्य आदिकनी हानी जोश्ने