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________________ (२) * अर्थ श्री संचपक्का mammmmm - - टीका:-तथाच निश्राकृतपदवाच्यस्य शशविषाणायमानत्वेनानिश्राकृततुल्यकक्षतया तत्र वंदनानिधानमपि कथं घटामटाट्यते॥ तस्मात्तव्यपदेशान्यथानुपपत्त्यैव यतीनां तत्र वासो ऽवसीयते ॥ अर्थः-ने वली ससलानां शींगमानी पेठे वस्तुताये निश्राकृत चैत्यज नथी ने निकेवल अनिश्राकृत एवं जे एक चैत्य दे, एम अंगिकार करो तो निश्राकृत चैत्यने विषे वंदननुं जे कहेवू ते कीये प्रकारे घटशे, निश्राकृत चैत्यनो अंगीकार नहीं करोतो तेतुं कहेवें व्यर्थ थशे माटेज निश्चय करीए बीए जे साधुने चैत्यमा रहेवा, ने, टीकाः-तथा संन्नावणे विसदो देवलियखरंटजयणजवएसो इत्याद्यागमे ग्लानप्रतिजागरणचिंतायां देवकुलिकशब्दादपि चैत्यवाससिफिः देवकुलिकनिवासमंतरेण देवकुलिकव्यपदेशानुपपत्तेः। नहि ग्रामानावे सीमाविधानं नामेति लौकिकन्यायाला एवं चैवमाद्यागमवचनप्रामाण्यादागमोक्तत्वमप्यस्येति निश्चीयते ॥ अर्थ:-वली संन्नावण इत्यादि आगम गाथाने विष देवकुलिक शब्द कह्यो , ते देवकुलिक शब्दथी पण चैत्यवासनी सिद्धि थाय बे, केम के देवकुल कहेतां देवालय ते जेमने ते देवकुलिक कहीए, एटले देवमंदिर वाला एटलोअर्थ थयो, देवमंदिरमां निवास कर्या विना देवमंदिरवालो एम कहेवू न घटेते उपर लौकिक न्याय देखामे वे जेम के गाम विना सीमामानुं क ते निश्चे होय नहीं ए प्रकारना लौकिक न्यायथी चैत्य निवास कर्या विना चैत्यवालाअमुक पुरुषो एवो व्यवहार होय नहीं. एवं कहेतां ए प्रकारना
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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