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आगम के अनमोल रत्न
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अनाथि मुनि एक समय मगध के सम्राट श्रेणिक विहारयात्रा के लिये मंडिकुक्षि नामक उद्यान में आ पहुँचा। वहाँ एक वृक्ष के नीचे पद्मासन लगाए हुए एक ध्यानस्थ मुनि को देखा। मुनि की प्रसन्न मुख मुन्ना, कान्तिमय देदीप्यमान विशाल भाल और सुन्दर रूप को देखकर राजाश्रेणिक आश्चर्य चकित हो गया। वह विचार करने लगा-"महा कैसी इनकी कान्ति है ? कैमा इनका अनुपम रूप है। महा! इस योगीश्वर की कैसी अपूर्व सौम्यता, क्षमा, निर्लोभता तथा भोगों से निवृत्ति है!" वह उनके निकट पहुँचा और हाथ जोड़कर विनय पूर्वकपूछने लगा
"हे आर्य ! आपने युवावस्था में दीक्षा क्यों ग्रहण की क्योंकि यह अवस्था तो संसार के विषय भोगों में रमण करने की है। आपने इस तरुण अवस्था में सांसारिक विषय भोगों का परित्याग करके जो श्रमण धर्म को स्वीकार किया है इसका कारण क्या है, यह मै जानना चाहता हूँ?"
राजा के प्रश्न का उत्तर देते हुए मुनि ने कहा- "हे राजन् ! मै अनाथ हूँ। मेरा कोई नाथ नहीं है। मेरा रक्षक कोई नहीं है।
और न मेरा कोई कृपाल मित्र ही है। इसीलिए मैने संयम ग्रहण किया है।"
मुनीश्वर का उत्तर सुनकर मगध सम्राट् हंसने लगा। वह कहने लगा-"मुनिश्रेष्ठ ! क्या आप जैसे प्रभावशाली तथा समृद्धशाली पुरुष को अभी तक कोई स्वामी नहीं मिल सका है ? हे मुनिवर ! यदि सचमुच आपका कोई नाथ नहीं है, आप अनाथ ही हैं तो हे भगवन् ! मैं आपका नाथ वन आता हूँ। मेरे नाथ वन जाने पर आपको मित्र, ज्ञाति तथा अन्य सम्बन्धिजन सुखपूर्वक मिल सकेंगे। उनके सहवास में सुखपूर्वक रहते हुए आप पर्याप्त रूप से सांसारिक विषयभोगों का उपभोग करें। यह मनुष्य जन्म बार बार नहीं मिलता। इसको प्राप्त करके सासारिक सुखों से वंचित रहना उचित नहीं है। अतः.