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________________ आगम के अनमोल रत्न ५२१ मुनि ने अपना ध्यान खोलकर जबाब देते हुए कहा-"राजन् । मै तुझे अभयदान देता हूँ, तू भी मेरी तरह अन्य प्राणियों को अभयदान दे । इस क्षणभंगुर जीवलोक के लिये तू प्राणियों की हिंसा निकर । "जब सब कुछ यहीं छेड़कर कर्मों के वश होकर परलोक में जाना है तो इस भनित्य संसार और राज्य में क्यों लुब्ध हो रहा है ? "राजन् ! तुझे परलोक का बोध नहीं है। अरे तू जिस पर मोहित हो रहा है, वे भोग विजली के चमत्कार की तरह चंचल है, नाशवान है।" "राजन् ! स्त्री, पुत्र, मित्र कलत्र बांधवादि जीते जागते के हो साथी है । मरने पर ये कोई साथ नहीं चलते।' इस प्रकार मुनि के वचन सुनकर राजा संयति को वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने राज्य को छोड़कर वहीं गर्दभाली मुनीश्वर के पास दीक्षा ले ली । दीक्षा लेकर संयति मुनि ने गुरु के समीप श्रुत का अध्ययन किया। श्रत में पारगत होने के बाद संयति अपने मुनि गुरु की आज्ञा प्राप्त कर एकाकी विचरन लगा। एक बार वे विहार करते हुए कहीं जारहे थे । मार्ग में क्षत्रिय राजर्षि मिले । सुन्दर रूप और प्रसन्नमन संयति मुनि को देखकर क्षत्रिय राजर्षि बड़े प्रसन्न हुए और बोले "हे मुने । आपका नाम क्या है ? गोत्र क्या है? आप किस लिये महान हुए ? आप गुरुजनों की सेवा किस प्रकार करते हैं ? और किस प्रकार विनयवान् कहलाते हैं ?" संयती-हे मुनिवर । संयति मेरा नाम और गौतम मेरा गोत्र है। गर्दभाली मेरे भाचार्य है, जो विद्या और चारित्र के पारगामी हैं।" इसके बाद संयति और क्षत्रिय राजर्षि के बीच क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञान वादियों के सिद्धान्त विषयक
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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