SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४७२ आगम के अनमोल रत्न - देवी के चले आने के बाद माकन्दीपुत्र थोड़ी देर महल में रहने के बाद पूर्वदिशा के वनखण्ड में गये। वहाँ कुछ समय तक रहकर वे उत्तर के वनखण्ड में गये और वहां से वे पश्चिम के वनखण्ड में पहुँचे । उसके बाद माकन्दीपुत्रों ने सोचा कि देवी ने हमें दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने से क्यों मना किया है । अवश्य ही इस में कोई न कोई रहस्य होना चाहिए। हमलोग क्यों न जाकर देखें कि वहाँ क्या है ? दक्षिण दिशा के वनखण्ड के रहस्य का पता लगाने के लिए दोनों कुमारों ने निश्चय किया। साहस बटोर कर वे दोनों कुमार दक्षिण दिशा की ओर रवाना हुए । थोड़ी दूर चलने पर उन्हें बड़ी असह्य दुर्गन्ध आई; उन्होंने उत्तरीय वस्त्र से अपने मुँह ढंक लिये और बड़ी कठिनता से आगे बढ़े। आगे जानेपर उन्हें एक बड़ा वधस्थल मिला जहाँ हड्डियों के ढेर और मृत पुरुषों के देह इधर उधर पड़े हुए दिखाई दिये । वहाँ शूलीपर लटका हुआ एक पुरुष करुण स्वर में चीख रहा था । दोनों भाई डरते डरते उस पुरुष के पास पहुंचे । उसे पूछाभाई ! यह वधस्थल किसका है ? तुम कौन हो ? किसलिए यहाँ आये थे ? तुम्हारी यह अवस्था किसने की ? पुरुषने अपना परिचय देते हुए कहा---यह रत्नद्वीप की देवी का वधस्थान है। मै काकन्दी नगरी का निवासी अश्वों का व्यापारी हूँ। नाव में घोड़े और कीमती माल भरकर मैं लवणसमुद्र से परदेश जा रहा था । इतने में समुद्र में एक बड़ा तूफान आया और मेरी नाव समुद्री पर्वत से टकराकर चकनाचूर हो गई । एक टूटे हुए पटिये के सहारे तैरता हुआ मैं रत्नद्वीप में आकर रहने लगा । वहाँ से रत्न द्वीप की देवी मुझे अपने महल में ले गई जहाँ मैं उसके साथ सुखभोग भोगता हुआ आनन्द पूर्वक रहने लगा। एक दिन मुझ से छोटा सा अपराध होगया जिससे क्रुद्ध होकर देवी ने मेरी यह दुर्दशा की।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy