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आगम के अनमोल रत्न
सुबुद्धि मन्त्री से जितशत्रु राजाने निर्ग्रन्थ प्रवचन को सुना और उसने पांच अनुव्रत तीन गुणत्रत और चार शिक्षात्रत रूप श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किये । अब वह निर्ग्रन्थ प्रवचन के अनुसार अपनी आत्मा को पवित्र करता हुआ रहने लगा ।
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एक बार चंपा नगरी में स्थविर मुनि का आगमन हुआ । राजा और मन्त्री दोनों ने स्थविर का उपदेश श्रवण किया । स्थविर के उपदेश से दोनों को वैराग्य उत्पन्न हो गया । राजाने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्यगद्दी पर स्थापित कर सुबुद्धि मन्त्री के साथ दीक्षा अंगीकार कर ली ।
दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् जितशत्रु मुनि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । बहुत वर्षों तक दीक्षापर्याय पालकर अन्त में एक मास की संलेखना करके सिद्धि प्राप्त की ।
तेतलीपुत्र
तेतलीपुर नामक नगर था । उस नगर के बाहर ईशान दिशा में प्रमदवन नाम का उद्यान था । उस नगर में कनकरथ नामक राजा राज्य करता था । उसकी रानी का नाम पद्मावती था । तेतलीपुत्र नाम का उनका अमात्य था । वह साम-दाम दण्ड और मेद इन चारों प्रकार की राजनीति में कुशल था ।
उस नगर में कलाद नाम का एक मूषिकारदारक (स्वर्णकार ) रहता था । वह धनाढ्य था और किसी से पराभूत होनेवाला नहीं था । उसकी पत्नी का नाम भद्रा था । रूप यौवन और लावण्य में उत्कृष्ट पोट्टिला नाम की उसकी पुत्री थी ।
एक बार पोट्टिला स्नान करके और सब अलंकारों से विभूषित होकर दासियों के समूह से परिवृत होकर प्रासाद के उपर रही हुई अगासी को भूमि में सोने की गेंद से कीड़ा कर रही थी । उस समय
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