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संयम के अवतार
सुरेश मुनि शास्त्री साहित्यरत्न श्रद्धेय गुरुदेव श्री रत्नचन्द्र जी महाराज, विश्व की उन विभूतियो मे से थे, जो जीवन में अपनी सयम, त्याग, तप की साधना, ज्ञान, प्रतिभा और पौरुष के बल पर महान् बने थे। उन जैसे तेजस्वी व्यक्ति तथा एकनिष्ठ साधक, किसी भी समाज अथवा राष्ट्र मे युगो के बाद हुआ करते है, जो सोए हुए समाज, राष्ट्र और जन-चेतना को अपने जाज्वल्यमान, प्रदीप्त एव ओजपूर्ण व्यक्तित्व, धन-गणित पौरुषमयी वाणी से झकझोर कर सजग-सावधान कर देते है।
जैन-सस्कृति अध्यात्म-सस्कृति है । यम-नियम-सयम की सस्कृति है। त्याग-तप-विराग की संस्कृति है। मानव के मौलिक मूल्य महत्व को सस्कृति है । यहा प्रत्येक जीवन इसी काटे पर तुलता है । इस काटे पर जो खरा उतरा, वह खरा महान्-महतो महीयान् है ।
यदि उनके जीवन मे सयम-त्याग-तप का बल न होता, यदि वैराग्य, कष्ट-सहन तथा अहिंसा को उन्होने अपना मार्ग-दर्शक न जाना-माना होता, तो क्या वह युग के नायक, युग के द्रष्टा, युग के ऋषि महर्षि और अपने युग के सच्चे गुरु बन पाते ? जैन-सस्कृति की विचार-परम्परा के सही अर्थों मे युग के धर्म-नेता युग के धर्माचार्य-धर्म गुरु थे। वह ज्ञान गुरु थे, वह दर्शन-गुरु थे, वह चारित्र गुरु थे । गुरु वह है, जो तत्व-ज्ञान बाटे । गुरु वह है, जो जन-जन के मन-मन मे ज्ञान की ज्योति जगाए । गुरु वह, जो अपने आप भी तिरे और दूसरो को भी तिराए, पार लगाए।
जो सीखो, किसी को सिखाते चलो।
दिए से दिए को, जलाते चलो ॥ सक्षेप मे, वह युग-पुरुप जन-हित के कार्य से जितने महान् थे, व्यक्तिगत रूप से उससे भी महान् . थे। यही कारण है, कि वह अपने पीछे कुछ प्रेरणा, कुछ प्रसाद और कुछ परम्परा छोड गए हैं।
उस युग-पुरुष के श्री चरणो मे हृदय की भाव भीनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हुए, अन्तर्मन एक अप्रतिम प्रसन्नता की अनुभूति कर रहा है, और गद्गद होकर अन्दर ही अन्दर बोल रहा है
चुप है, लेकिन सदियों तक गूंजेगी सदाए साज तेरी ॥ दुनिया को अधेरी रातो मे ढारस देगी आवाज वेरी ॥