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परम पूज्य श्री रत्नचन्द्र जी महाराज
मंत्री श्री पृथ्वीचन्द्र जी महाराज
परम श्रद्धेय श्री रतनचन्द्र जी महाराज अपने युग के एक महान् तत्त्वदर्शी युग-पुरुप थे । उनके विचार उदार एव पवित्र थे। उनका आचार पावन एव पवित्र था। उनकी वाणी मधुर एव प्रिय थी। उन्होने स्वय ज्ञान की साधना की और दूसरो को भी खुलकर ज्ञान का दान दिया। उन्होने अपने युग मे जितना कार्य किया, उसका वर्णन कर सकना, सहज काम नही है। उनको दृष्टि इतनी उदार और व्यापक थी कि उनके लिए कोई पर था ही नही । सवको समान दृष्टि से देखना, यह उनका सहज स्वाभाविक गुण था। धर्म, दर्शन, व्याकरण, न्याय और ज्योतिप-शास्त्र के आप प्रकाण्ड पण्डित थे। सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश जैसी प्राचीन भापागो के आप परम विद्वान थे । गास्त्र-चर्चा मे आप परम प्रवीण थे। भाषण-कला आपकी मुग्ध करने वाली थी। आप सर्वगुण सम्पन्न थे। आपके गुणो का वर्णन कहा तक किया जाए । फिर भी सक्षेप मे श्रद्धेय रतनचन्द्र जी महाराज के जीवन की ये विशेषताएं थी
पूज्य रलमुनि जी महाराज अपने युग के सुप्रसिद्ध जैन सन्त हो गए है। जप-तप और ज्ञानसाधना के साथ-साथ लोक-कल्याण-कामना का प्रसार ही आपके उदात्त एव आदर्श जीवन का मुख्य लक्ष्य था । सद्भाव, सदाचार, स्नेह, सहयोग, शुद्धात्मवाद और सहिष्णुता का महत्त्व सबको समझाने
और इन्ही सद्गुणो को क्रियान्वित करने कराने मे ही आपका पवित्र एव पावन जीवन व्यतीत हुआ। अन्धविश्वास, अन्ध परम्परा, रूढिवाद, जातिवाद, स्वार्थान्धता, ऊच-नीच विषयक विषमतादि दुर्गुणो का आपने बडे वेग मे युक्ति-युक्त खण्डन किया और भद्र भावनाओ का प्रचार प्रसार कर, जनता मे जीवनज्योति जागृत की, साथ ही सामाजिक दोषो तथा कुरीतियो को नष्ट करने की सद् शिक्षा भी दी। धार्मिक समन्वय, नैतिकोत्थान, हिन्दी-प्रचार एव संस्कृति-प्रसार के लिए आपने सैकडो कोसो की पैदल यात्रा की। धार्मिक, सास्कृतिक एव दार्शनिक विषयो पर हिन्दी मे आपने अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थो की रचना की । इन ग्रन्थो की हस्तलिपिया आज भी उपलब्ध है । अभिप्राय यह कि देश-दुर्दशा देख परम पूज्य रत्नमुनिजी महाराज ने अपनी लेखनी, वाणी और अपने आदर्श चरित्र एव महान् व्यक्तित्व द्वारा मानवोत्थान की मगलमयी भव्य भावना से प्रेरित होकर, उसकी पूर्ति के निमित्त अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया । पूज्य गुरुवर अब से डेढ सौ वर्ष पूर्व मानव-मगल के लिए, तप-त्याग पूर्वक, लोककल्याण-क्षेत्र में अवतरित हुए थे। उस समय, समाज-सुधार की भद्र भावना से अन्ध विश्वास और कुरीतियों के विरुद्ध कुछ कहना अक्षम्य अपराध समझा जाता था। ऐसी विकट तथा प्रतिकूल परिस्थिति