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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
के उपाश्रय मे विराजमान थे। दश-चीस भक्त श्रावक तत्व-चर्चा कर रहे थे। इसी बीच नीचे बाजार मे से कुछ बहनें गीत गाती हुई निकली। गुरुदेव कुछ देर के लिए रुके और बहनो के आगे बढ जाने के बाद प्रसग-चर्चा मे कहा कि गाने वाली वहनो मे वह तार स्वर वाली एक बहन अमुक जाति की है, अमुक रग की है, अमुक वय की है और एक आँख से कानी है । गुरुदेव ने बहनो को देखा नहीं था और न उनसे किसी प्रकार पूर्व परिचित ही थे। जब उपस्थित सज्जनो ने शीघ्र ही जाकर जांच की, तो गुरुदेव के कथन का अक्षर-अक्षर सत्य पाया, और सब लोग आश्चर्य-चकित हो गए । स्थानाग और अनुयोगद्वार सूत्र के स्वर-मण्डल प्रकरण मे तथा अन्य अनेक ग्रन्थो मे स्वर-विपयक कितनी ही अद्भुत बातो का वर्णन है । परन्तु शास्त्रीय विषयो का पारायण कर लेना, उन्हे पढ लेना एक बात है, और उनके वास्तविक मर्म को समझ लेना दूसरी बात है । गुरुदेव के जैसा अनुभूति गाम्भीर्य किसी रहस्य-वेदी योगी पुरुष को ही प्राप्त होता है।
भविष्य-द्रष्टा
गुरुदेव ज्योतिप शास्त्र के भी पारगत विद्वान थे । उनके चिन्तन-चक्ष ओ के समक्ष तमसान्छन भविष्य का निगूढ घटना-चक्र करतलामलकवत् स्पष्ट प्रतिभासित हो जाता था। केवल ज्योतिषशास्त्र ही नही, उसके साथ योग-साधना का चमत्कार भी मिश्रित था। उनकी भविष्य वाणियो के अनेकविध उदाहरण है, जिनमे से कुछ लिखित है और कुछ जनश्रुत हैं । यहाँ परिचय के लिए कुछ घटनाओ का उल्लेख पर्याप्त होगा।
तपस्वी श्री सेवगरामजी, जो आचार्य श्री शिवरामदासजी के प्रशिप्य, तपस्वी देवकरणजी के शिष्य, एव तत्कालीन आचार्य तुलसीरामजी म० के बडे गुरु भ्राता थे, मनोहर सम्प्रदाय मे बडे ही प्रभावशाली तपोमूर्ति सन्त थे । आपका जन्म भिवानी (हरियाणा प्रान्त) के पास बापोडा ग्राम मे विक्रम स० १८२० मे हुआ और दीक्षा १८६१ पौषमास मे चरखी दादरी मे हुई। आप की तप साधना बडी ही उग्र थी। महीने भर का लम्बा उपवास होता, साथ ही विहार, व्याख्यान एव स्वाध्याय आदि का कार्यक्रम होता, और आप जब देखो तब प्रसन्न । बालक जैसा निर्मल और सरल हृदय । दीर्घावधि तप का भी न कोई प्रदर्शन और न कोई अहम् ।।
तपस्वीजी सिंघाणा (जयपुर राज्य) मे विराजमान थे । स्वस्थ शरीर, कोई व्याधि नही। कुछ अन्दर से लहर आई और अनुभूति हुई कि माघकृष्णा चौथ रविवार को आलोचना-सलेखना करके सथारा ग्रहण कर लिया, यावज्जीवन के लिए आहार का त्याग कर दिया । कुछ ही दिन पश्चात् पूज्य गुरुदेव दर्शनार्थ सेवा मे पहुँचे । तपस्वी जी और सघ का हृदय प्रेमोल्लास से तरगायित हो गया । कुछ दिन ठहर कर कुचामण (मारवाड) जैन सघ की भावभरी प्रार्थना को लक्ष्य में रखकर जब विहार करने लगे, तो सघ ने कहा, “महाराजश्री | तपस्वी जी का सथारा है, न मालूम कब पूर्ण हो ? आपकी अन्तिम काल मे उपस्थिति आवश्यक है ।" भविष्य द्रष्टा गुरुदेव ने शान्तस्वर मे कहा -"अभी तपस्वी जी का
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