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________________ आचार्य हेमचन्द्र और सम्राट् कुमारपाल जिम प्रकार महामुनि वगिप्ठ के आदेश का पालन राम ने किया था, और आचार्य भद्रबाहु के आदेश का पालन सम्राट् चन्द्रगुप्त ने किया था । आप मेरे गुरु होगे, और मैं आपका गिप्य होकर रहूंगा।" आचार्य ने शान्त और गम्भीर वाणी मे कहा-"कुमारपाल | राजगुरु वनने की मेरे मन में जरा भी अभिलापा नहीं है। तुम मेरे गिप्य बनो, इसकी भी मेरे मन में कामना नहीं है। राजनीति में प्रवेश करना. मेरे साधु जीवन की मर्यादा भी नहीं है । 'बस' एक बात का ध्यान रखना कि जब तुम गुजरात के सम्राट् बनो, तब अपने राज्य में अहिंमा का प्रचार और प्रसार करना । तुम स्वय भी अहिंसा का पालन करना और अपनी प्रजा मे भी अहिसा का पालन करवाना । अपने राज्य का पालन सदा अनेकान्त के आधार पर करना । सदा समन्वय बुद्धि ने काम करना । आचार मे अहिंमा और विचार मे अनेकान्त रहा, तो तुम भी मुखी रहोगे और तुम्हारी प्रजा भी सुखी रहेगी।" महामत्री उदयन कुमारपाल को अपने घर ले गया। स्नान कराकर उसे भोजन कराया। कुछ मार्ग-व्यय देकर उमे अपने घर मे विदा क्यिा । कुमारपाल घूमता-घूमता मालवा मे पहुंचा । वहाँ पर उसे यह समाचार मिला, कि निद्धराज जमिह की मृत्यु हो चुकी है। वह तुरन्त पाटण आया । कुमारपाल ने अपने बुमि-बल से और अपने पराक्रम से राज्य सिंहासन पर अधिकार कर लिया। जिस ममय कुमारपाल ने राज्य पर अविवार किया, उन नमय उसकी अवस्था पचास वर्ष की थी। आचार्य हेमचन्द्र की भविष्यवाणी को मफल देख कर उसके मन में आचार्य के प्रति भक्ति एव श्रद्धा निरन्तर बढ़ने लगी । वह उन्हें अपना गुरु बनाना चाहता था। कुमारपाल को राज्य तो मिल गया परन्तु अभी तक उसके दुदिनो का अन्त नही हो सका । जामह के पुराने मत्रियो ने पड्यन्त्र करके उसे मार डालने का भरसक प्रयत्न क्यिा, पर वे सफल नहीं हो सके । सिद्धराज का दत्तक पुत्र चाह्ह भी सेना लेकर पाटण पर चढ आया, किन्तु कुमारपाल के पराक्रम के सामने वह टिक नहीं सका। कोकण देश का मल्लिकार्जुन भी कुमारपाल से वर रखता था, उसे भी कुमारपाल ने हराया। अजमेर के गजा सपाद से भी कुमारपाल का बहुत काल तक मघपं चला, आखिर वह भी हार गया। लगातार दश वर्षों तक कुमारपाल को आस-पास के राजाओ से युद्ध करना पड़ा । सघर्प से मनुष्य का चित्त शान्त नहीं रहता। युद्ध के दिनो मे उसे अपने प्रियजनो की स्मृति भी नहीं रहती । मघर्प-रत मनुष्य के सामने एकमात्र यही लक्ष्य रहता है, कि मुझे सफलता मिले, और कुमारपाल को वहीं मिली। ___ सधपों से विरत होते ही शान्ति के मधुर क्षणो मे कुमारपाल को आचार्य हेमचन्द्र का स्मरण हो आया। उन्हें अपना गुरु बनाने की उसकी उत्कट अभिलापा थी। कुमारपाल अभी तक शव था। शवधर्म में उसकी निष्ठा थी। परन्तु आचार्य के अहिंसा और अनेकान्त के उपदेश से वह जैन बन गया। पाटण मे पधारने को उसने आचार्य मे प्रार्थना की-"कुमारपाल के सहयोग से मैं अहिसा, अनेकान्त ४३३
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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