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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
अपने अज्ञातवास के कठिन समय मे भी कुमारपाल ने अपनी धीरता का और कष्ट-सहिष्णुता का परित्याग नहीं किया , वह माधु का वेप बना कर दूर प्रान्तो मे घूमता-फिरता रहा । न कही रहने का ठिकाना था, और न कही खाने-पीने का प्रबन्ध । कर्म की गति बडी विचित्र है । राजघराने मे जन्म लेकर भी कुमारपाल दर-दर का भिखारी बना फिर रहा है। न कोई सुख-सुविधा की पूछने वाला है,
और न कोई दुःख-दर्द मे साथी है । जिस किसी मनुष्य के हृदय मे दया जगी, उसी के द्वार पर जो मिला-खा-पी लिया । जब कभी कप्ट आता है, तो अकेला नही आता । वह अपने साथ एक लम्बी परम्परा लेकर आता है।
परन्तु इस कप्ट में भी कुमारपाल को एक प्रकार का मानसिक सन्तोप था। देश-विदेश मे घूमने से उसे नए-नए अनुभव मिले । भिन्न-भिन्न देशो की रीति-नीति के अध्ययन का अवसर मिला। अनेक भापाओ का ज्ञान उसे हो गया । विभिन्न देशो की संस्कृति, कला और सभ्यता को देखने और परखाने का समय मिला । विभिन्न लोगो के शील-स्वभाव से परिचित होने का मौका मिल गया । देश की गरीबी, अज्ञान और अवस्था का परिज्ञान हो गया । अज्ञातवास मे कुमारपाल को काट अवश्य मिला, पर विशाल अनुभव-राशि की सम्पत्ति को पाकर वह प्रसन्न और सन्तुष्ट था। मनुष्य जो कुछ पाता है, कप्ट मे ही पाता है।
___ जयसिंह को उसकी प्रजा सिद्धराज के नाम से भी सम्बोधित करती थी। वह अपनी प्रजा को प्यार करता था, और प्रजा भी उसका आदर करती थी। सिद्धराज के पास विशाल राज्य था, अपार वल था, फिर भी उनके मन मे एक चिन्ता थी, कि मेरे बाद मेरे राज्य का अधिकारी कौन हो । कुमारपाल को तो वह घृणा करता ही था। अत सिद्धराज ने चाहह नाम के एक क्षत्रिय पुत्र को अपना दत्तक पुत्र बना लिया, और उसका उत्तराधिकारी चाहड ही बने इस प्रकार की व्यवस्था की।
इधर कुमारपाल के दुखो का अन्त अभी नही आया था । जहाँ जरा भेद लगने जैसी आशका होती, तो कुमारपाल वहाँ से आगे के लिए प्रस्थान कर देता । घूमता-फिरता वह ग्वभात जा पहुँचा । खभात का अधिकार उम समय महामत्री उदयन के हाथ मे था। उसी अवसर पर वहाँ आचार्य हेमचन्द्र भी पधारे हुए थे । महामत्री उदयन उपाश्रय में अनुदिन उनके दर्शन को जाता था। धुमक्कड कुमारपाल भी एक दिन आचार्य की सेवा मे जा पहुंचा। कुमारपाल को देखने के साथ ही आचार्य हेमचन्द्र ने महामत्री उदयन से कहा-"निकट भविष्य मे ही यह व्यक्ति गुजरात का सम्राट बनेगा।" आश्चर्य हुआ। कुमारपाल के कप्ट चरम सीमा पर पहुंच चुके थे । निराशा मे इवे को आशा की एक किरण भी जीवन प्रदान कर देती है। आचार्य हेमचन्द्र की आशा-भरी वाणी को सुनकर कुमारपाल गद्गद स्वर में बोल उठा
"आचार्य प्रवर । आपकी वाणी सिद्ध हो । यदि मुझ गुजरात का साम्राज्य मिल गया, तो वह आपका ही होगा। मैं तो आपका सेवक बन कर रहँगा । आपके आदेश का पालन मै उसी प्रकार करूंगा,
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