SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 563
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय श्री यशोविजय की जीवन-दृष्टि अध्यात्मोपनिपद बहुत ही मार्के की चीज है। हिन्दू दर्शन और बौद्ध दर्शन मे जिस प्रकार श्रीमद् भागवत गीता और धम्मपद का महत्व है, उसी दृष्टि से उन्होने ज्ञानसार नामक एक अति उत्कृष्ट रचना पेश की । इस रचना मे अन्तर्मुख होकर अध्यात्म परायण जीवन व्यतीत करने वाले व्यक्ति के लिए प्रचुर मात्रा मे पाथेय प्राप्त होता है। जैन परम्परा का दुर्भाग्य है कि ऐसी उत्कृष्ट रचना का भी जन-साधारण मे प्रचार नही हो पाया । उपाध्याय श्री के दो सौ, ढाई सौ साल बाद गुजरात के ही एक प्रज्ञा चक्षु विद्या की लालसा से प्रेरित होकर काशी पहुँचे। उन्होने उपाध्याय श्री की तरह ही समग्र भारतीय दर्शनो के साथ न्याय दर्शन का भी गम्भीर अध्ययन किया और उपाध्याय श्री की तरह ही उन्होने काशी के विद्वानो द्वारा न्यायाचार्य की पदवी प्राप्त की । उनका नाम है प० सुखलाल जी । पण्डित जी का प्रारम्भ से ही उपाध्याय श्री की कृतियो के प्रति बहुत आकर्षण रहा है। उनकी कृतियो का उद्धार करने के लिए वे अपने प्रत्येक छात्र से नव्य न्याय दर्शन का अभ्यास करने के लिए कहते रहते है । उनके अन्तेवासी के रूप में काशी मे कई विद्यार्थी रह चुके है | उन्हीं मे से एक मेरे परिचित है, पण्डित महेन्द्रकुमार शास्त्री । जब शास्त्री जी पण्डित के पास अध्ययन कर रहे थे, तो एक दिन पण्डित जी ने अपनी मन की बात व्यक्त करते हुए उनसे कहा- महेन्द्र मै चाहता हूँ कि तुम नव्य न्याय का अध्ययन करो। और श्री यशोविजय जी कृतियो का सम्पादन एव अनुवाद करने मे अपना जीवन लगा दो ।" शास्त्री जी परिस्थितियो वश वैसा नही कर सके। लेकिन यह सच है कि पण्डित जी अपने मन की वह भावना व्यक्त करके ही चुप नही बैठ गए । उपाध्यायजी की जैन-तर्क भाषा, ज्ञान-बिन्दु आदि अनेक कृतियो की प्रस्तावना तथा टिप्पणी के सहित सुसपादन किया । उन्ही के बारे में एक बात भी प्रसिद्ध है कि वे बहुत वर्षों तक वाचक यशोविजय जी के जीवन से परिचित होने के लिए आकुल रहे। उन्हे कोई प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नही हो रही थी । एक बार का जिक्र है कि स्व० मोहनलाल दलीचद देसाई रात्रि मे दस बजे पण्डित सुखलाल जी के पास 'सुजसलहरी' नामक एक छोटी सी पुस्तक लेकर आए। यह ऐसी कृति है, इसमे उपाध्याय श्री की सक्षेप मे जीवनगाथा है । उस कृति को देखकर पण्डित जी इतने भावविभोर हो गए कि उन्होने उसी समय मोहनथाल बनवा कर श्री मोहनभाई को खिलाया । विद्वता की यह कसौटी है कि वह अति नम्र हो । उपाध्याय श्री मे यह गुण चरमकोटि का था । उनके गुरु ने अपनी सब विद्या उन्हें दी उनके इसी नम्रता गुण से प्रभावित होकर काशी मे रहते समय थी । विद्या प्राप्त करने के बाद जब वे गुजरात के लिए प्रस्थान करने लगे, तब उन्होने अपने गुरु से निवेदन किया कि 'आपको किसी भी चीज की अपेक्षा हो तो कभी गुजरात आइएगा। एक बार सयोगवश उक्त गुरु गुजरात मे उसी स्थान पर पहुँचे, जहाँ कि उपाध्याय श्री जी पट्टे पर बैठकर व्याख्यान देते थे । सामने हजारो की सख्या मे परिपद् थी । लोग उनका अत्यधिक सम्मान करते थे । गुरू जी दूर से ही उनकी यह सब स्थिति देखकर स्तब्ध रह गए। पास मे जाने या न जाने का विचार करते ४२६
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy