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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
के साहित्य पर भी इस प्रणाली का कोई प्रभाव नहीं दिखाई देता । उनके पहले केवल सप्तभगी तरगिणी नामक एक छोटी-सी कृति उपलब्ध होती है, जिस पर कि इसका प्रभाव है। उसके अलावा जहाँ तक दृष्टि जाती है, ऐसी कोई दूसरी कृति नजर नहीं आती। लेकिन उपाध्याय श्री ही एक ऐसे थे, जिन्होने नव्य न्याय से जैन वाड्मय को परिपूर्ण बनाया।
उपाध्याय श्री की प्रतिभा विविधगामिनी थी । उन्होंने संस्कृत, प्राकृत, गुजराती, मारवाडी आदि कई मापामो मे अधिकारपूर्ण लिखा । सारे भारतवर्ष में सस्कृत की प्रतिष्ठा होने के कारण उसमे रचना करने के लिए उद्यत होना सहज था । हमारे जैन आगमो की प्रारम्भिक भाषा प्राकृत है, इसलिए प्राकृत का मोह भी उनके लिए स्वाभाविक था । तीर्थकरो द्वारा प्ररूपित भापा से आकृष्ट होकर उन्होने इसमे अनेक ग्रथों की रचना की । गुजरात प्रदेश में जन्म लेने के साथ-साथ गुजरात ही अधिकतर उनकी विहार भूमि होने के कारण उन्होंने गुजराती में अनेक ग्रथो की रचना की। इसके सिवाय अध्यात्मयोगी आनन्दघन जी के सहवास से प्रभावित होकर उन्होंने मारवाडी मे भी कई रचनाएँ प्रस्तुत की।
ब्राह्मण परम्परा की तरह जैन परम्परा मे ज्ञान का स्रोत बहुत व्यापक नही रहा । वह केवल साधुओ तक ही सीमित रहा । इसलिए उपाध्याय श्री जैसे समर्थ शास्त्रकार की रचनाओ का उनके देहावसान के बाद विशिष्ट अध्ययन, अध्यापन नही हो पाया। यदि वे किसी दूसरी परम्परा मे होते तो उनके ग्रणे पर अनेक टीकाएँ तथा भाप्य लिखे जाते । अध्ययन की दृष्टि से भी उनका विशेप प्रचार होता । पर जैन परम्परा मे नव्य न्याय का विशेप अध्ययन न होने के कारण उनके ग्रन्थो को समझने की पात्रता बहुत कम लोगो मे रही । फलस्वरूप न तो उनके ग्रन्थो की अधिक प्रतिलिपियों हो पायी और न प्रचारात्मक दृष्टि से ही उन्हे जगह-जगह रखा गया। यही कारण है कि दो-सौ ढाई-सौ साल के इस अल्पकाल मे ही उनकी अनेक कृतिया काल-कवलित हो गयी । अव जो कुछ भी हैं, केवल उन्ही को आधार बनाकर कोई विद्वान उनमे सारा जीवन लगाए तो यहां तक कहा जा सकता है कि अपना सारा जीवन विताने पर भी वह उनका सर्वागीण अध्ययन लिखित रूप में उपस्थित कर सके तो भारतीय साहित्य मे वह एक बहुत बडी देन होगी।
उपाध्याय श्री ने अपनी छोटी सी आयु मे क्या नहीं लिखा ? उन्होने जो कुछ लिखा और जितने विपयो पर लिखा, वह सब देखकर आश्चर्य होता है। प्रमाण, प्रमेय, नय, मगल, मुक्ति, आत्मा, योग, व्याकरण, काव्य, छन्द, अलकार, दर्शनशास्त्र आदि मभी तत्कालीन प्रसिद्ध विपयो पर उनकी कलम धारावाहिक रूप से चली । लगता है कि उनकी लेखनी सहज रूप से चलती हो गयी । कही बनावट नहीं । कही खटकने जैसी बात नही । कही शकाएं उपस्थित होने की गुजाइश नहीं।
जन परम्परा में आचार्य हरिभद्र की योगशास्त्र मे बहुत बडी देन है । उन्होने योग दृष्टि से पोडपक, योगशतक, योग-दृष्टि-समुच्चय अदि अनेक ग्रन्थ लिसे है । उपाध्याय धी ने उन्ही का अलवम्ब लेकर गुजराती में 'आठ दृष्टिनी सज्झाय' नामक एक प्रसिद्ध रचना की । आध्यात्मिक दृष्टि से उनका
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