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________________ उपाध्याय श्री यशोविजय की जीवन-दृष्टि एक बार अहमदाबाद शहर मे यशोविजय जी ने सघ के सामने आठ अवधान किए । यह सम्वत् १६६६ का काल था। उपाध्याय श्री के अवधान से प्रभावित होकर एक धनजी सूरा नामक प्रसिद्ध व्यापारी ने गुरु नयविजयजी महाराज से प्रार्थना की कि मुनि यशोविजयजी को काशी जैसे विद्या-स्थान मे भेजकर अध्ययन करवाएं तो जैन-शासन की बडी उन्नति होगी। इस कार्य के लिए उक्त सेठ ने उसी समय दो हजार चादी के दिनार की हुण्डी लिख दी। मुनि यशोविजय जी विद्या-अध्ययन के लिए काशी चल पडे और वहाँ किसी प्रसिद्ध विद्वान के पास रहकर न्याय आदि दर्शनो का तलस्पर्शी अध्ययन किया। उस समय काशी में यह परिपाटी थी कि जो विद्या-बल से विद्वानो को पराजित कर देता, उसे 'उपाध्याय' या 'आचार्य' को पदवी दी जाती थी । उपाध्याय जी ने वह पदवी काशी के विशिष्ट विद्वानो को अपनी प्रतिभा से पराजित करके प्राप्त की। उल्लेख तो ऐसा भी मिलता है कि उन्हे काशी के विद्वानो ने सम्मानपूर्वक आचार्य की पदवी प्रदान की थी। उपाध्याय श्री ने उसका उपयोग नयोपदेश जैसे एकाध अन्थ मे ही किया है। न्यायशास्त्र आदि के गम्भीर अध्ययन के बाद उपाध्याय श्री अहमदाबाद लौट गए। वहां उन्होने औरगजेब के मोहब्बत-खा नामक गुजरात के सूबे के अध्यक्ष के समक्ष १८ अवधान किए। उनकी इस चमत्कारिक प्रतिभा से आकृष्ट होकर सघ ने उन्हे उपाध्याय पद पर अधिष्ठित किया। आचार्य श्री विजयदेव सूरि के शिष्य आचार्य विजयप्रभ सूरि ने स० १७१८ मे उन्हे वाचक पद से विभूषित किया। बडौदा स्टेट के बोही ग्राम (भोई) मे वि० स० १७४३ मे उपायाय श्री का स्वर्गवास हुआ। वि० स० १७४५ मे उसी स्थान पर उनकी पादुकाए प्रतिष्ठित की गयी, जहा जाकर आज भी अनेकानेक लोग विद्या-अध्ययन की प्रेरणा पाते है। यह उपाध्याय श्री का बाह्य जीवन है । लेकिन उनका साक्षर जीवन सारे भारतीय दर्शन में विशेष महत्व रखता है । जैन परम्परा मे होने के कारण ही वे यथेष्ट प्रसिद्ध नहीं हो पाए । यदि वे दूसरी परम्परा मे होते, तो आज उनकी गणन्ग धर्मकीर्ति, शकराचार्य, रामानुज जैसे विशिष्ट विद्वानो मे होती। हवी शताब्दी के बाद उदयन तथा गगेश जैसे न्यायशास्त्र के विशिष्ट विद्वानो द्वारा न्यायशास्त्र ने एक नवीन प्रणाली अपनाई, जो नव्य न्याय के नाम से प्रसिद्ध है। इसमे प्रायः सभी प्रमेयो का सूक्ष्मातिसूक्ष्म विश्लेषण किया गया है । इस प्रणाली ने भारतीय साहित्य के सभी अगो पर इतना अधिक प्रभाव डाला है कि उस प्रभाव से शून्य प्रत्येक शाखा एक प्रकार से अविकसित समझी जाने लगी है । साख्ययोग, कणाद दर्शन, अद्वैत दर्शन, मीमासा, व्याकरण, छन्द-शास्त्र आदि समस्त अगो पर उसका प्रभाव परिलक्षित होता है। इधर कलिकाल-सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के बाद कोई ऐसा विशिष्ट विद्वान नहीं हुआ कि उस प्रणाली का विशेष रूप से अध्ययन कर जैन न्यायशास्त्र को उससे मण्डित करता। आचार्य हेमचन्द्र ४२७
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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