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उपाध्याय श्री यशोविजय की जोवन-दृष्टि
मुनि नदोषेण विजय विश्वबंधु'
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जैन धर्म की समस्त परम्पराओ मे उपाध्याय श्री यशोविजय जी का स्थान अप्रतिम है । उन्होने अपने प्रकाण्ड पाडित्य, अपूर्व प्रतिभा एव नवोन्मेप-शालिनी प्रज्ञा द्वारा जैन साहित्य और जैन दर्शन को जो नवीन मोड दिया, उसका भारतीय दार्शनिक साहित्य मे विशेष स्थान है । वे नही होते, तो यह अग एक प्रकार से अछूता ही रह जाता।
अन्य भारतीय विद्वानो की तरह हमे श्री उपाध्याय यशोविजयजी के बारे मे बहुत ही कम जानकारी है । पर स्व० मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने अपने पुरुषार्थ से 'सुजस लहरी' प्राप्त की, उसी के आधार पर थोडी बहुत प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध हो सकी है। सुजस लहरी के अनुसार उपाध्याय श्री का जीवन इस प्रकार था।
उपाध्याय श्री गुजरात मे कलोल के पास 'कनोडू' नामक ग्राम में पैदा हुए। उनके पिता का नाम 'नारायणभाई तथा माता का नाम 'सौभागदे' था। उपाध्याय श्री के एक सहोदर भी था, जिसका नाम था 'पद्मसिंह । एक बार सम्राट् अकवर के प्रतिबोधक प्रसिद्ध जैनाचार्य श्री हीरविजय सूरि की शिष्य परम्परा मे होने वाले पण्डित-वर्य श्री नयविजयजी महाराज पाटण के समीपवर्ती कुणगेर' नामक ग्राम मे पधारे। उनके प्रतिवोध से दोनो बधु अपने माता पिता की अनुमति लेकर उनके साथ हो लिए। दोनो ने स० १६८८ मे नयविजयजी महाराज के पास ही दीक्षा ग्रहण की । उसी साल आचार्य विजयदेव सूरि के हाथो उनकी वडी दीक्षा सम्पन्न हुई। दीक्षा के समय उन दोनो भाइयो का मूल वाम 'जसवत' की जगह 'यशोविजय' और 'पद्मविजय' रखा गया। उपाध्याय श्री ने अपनी प्रत्येक कृति के प्रत मे अपने भाई को सहोदर के रूप मे स्मरण किया है।
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