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________________ भगवान् महावीर वैशाली की दिव्य-विभूति चतुष्टय से सम्पन्न रहता है। उसमे अनन्त सामर्थ्य भरी हुई है। वह इस सामर्थ्य को नहीं जानता, इसीलिए वह ससार मे नाना क्लेशो को भोग रहा है, सामर्थ्य अपने सच्चे स्वरूप का ज्ञान होते ही वह क्लेशमय बन्धनो से मुक्ति पा करके वली होकर विचरने लगता है। जगत् के कोने-कोने मे जीवो की सत्ता मानना, उन्हे किसी प्रकार भी हिंसा न पहुंचाना, मानव की सामर्थ्य की पहचान करना आदि सुन्दर गिक्षाएँ हमे वैशाली के इस महापुरुप ने दी है। इस दिव्य-विभूति की यह वाणी सदा स्मरण रखने योग्य है कि जब तक व्याधिया नही वढती, जब तक इन्द्रियाँ अशक्त नहीं होती, तव तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए, बाद मे कुछ होने का नहीं जरा जाव न पौडेइ, वाही जाव न वड्ढइ । जाविदिया न हायन्ति, ताब धम्म समायरे ॥ RAKARAM ४२५
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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