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गुरुदेव श्री ग्ल मुनि स्मृनि-ग्रन्य
४ प० कल्याणविजयजी ने जनसूत्रो के आगर पर महावीर के चातुर्माम्य में बिनाने के स्थानो का बडा ही सागोपाग वर्णन किया है। महावीर ने प्रथम चातुर्मान्य जन्थिन-ग्राम में बिनाया और दूसरा राजगृह मे । राजगृह जाते समय वे 'श्वेताम्बिका' नगरी गे होकर गा और नदनन्तर गगा को पार कर राजगृह मे पहुँचे । बौद्ध ग्रन्थो मे पता चलता है कि श्यताम्यिगा श्रायम्नी में गिरावग्नु की तरफ जाते समय रास्ते में पडती थी । यह प्रदेश कोगल के पूर्वाता में और विदह पग्निम में पाना था और वहाँ से राजगृह की तरफ जाते समय बीच में गगा पार कनी पानी पी, यह म्यान न भौगोनिगः स्थिति के निरीक्षण से प्रतीत होता है। आधुनिक गिय गुण्ठपुर जहां बननाया जाता है, यहां गंगे दोनो वातें ठीक नहीं उतरती । वहाँ मे ग्वताम्बिका नगर्ग न नी गाने में पानी और न गजगृह जाते समय रास्ते मे गगा को पार करने का अवसर आवंगा।
इन सब प्रमाणो पर ध्यान देने में प्रतीत होता है कि बंगाली हो वामान महावीर की जन्मभूमि थी, इसमे किसी प्रकार का मन्देह नहीं हो सकता । महावीर की मृत्यु 'पावापुर" में मानी जाती है। बौद्ध ग्रन्थो के अनुशीलन से जान पटता है कि यह म्यान जिला गोग्यपुर के पगेना के पाग 'पप-उर' ही है । सगीति परियायसुत्त (दीघनिकाय ३२ वा सुत्त) के अध्ययन में पता चलता है कि यहाँ गान नामक गणतन्त्र लोगो को राजधानी थी, जिसके नये मस्थागार (सठागार) में बुद्ध ने नियाग किया। गह भी पता चलता है कि बुद्ध के आने से पहले ही 'निगठ नातपुत' का देहावमान हो चुगा था और उसके भक्तो तथा अनुयायियो मे मतभेद भी होने लगा था। चौहग्रन्थों में महावीर निगठ नानपुन' नाम विख्यात है। 'ज्ञातपुत' तो जातिपुत्र है। ज्ञाति नामक क्षत्रिय-वश में उत्पन्न होने में यह नाम पर। 'निगठ' ग्रन्थ है, जो ससार के ग्रन्थियो मे युक्त होने के कारण केवल जान-गम्पन वर्धमान को उग गमय की उपाधि प्रतीत होती है।
जैन धर्म की विपुल उन्नति के कारण ये ही वर्धमान महावीर है, जिनका भरियाग्राम में ५६६६ ई० पू० तथा तिरोधान ५२७ ई० पू० पावापुर में हुआ। उनकी जीवन-घटनाए नितात प्रगिद्ध है। पार्श्वनाथ के द्वारा जिस जैन धर्म की व्यवस्था पहले की गई थी, उममे रोने मशोधन कर उभे ममयानुकूल बनाया। पार्श्वनाथ ने चार महावतो-अहिंमा, सत्य, अम्नेय तथा अपरिग्रह के विधान पर जोर दिया है, पर महावीर ने 'ब्रह्मचर्य' को भी उतना ही आवश्यक तया उपादेय बतला कर उगनी भी गणना महावतों मे की है । पाश्वनाथ वस्त्रधारण करने के पक्ष-पाती थे पर महावीर ने नितान्त बैंगग्य की साधना के लिए यतियो के वास्ते वस्त्रपरिधान का बहिष्कार कर नग्नतत्त्व को ही आदर्श आचार वतलाया है । आजकल के श्वेताम्वर नथा दिगम्बर सम्प्रदायो का विभेद इम प्रयार बहुत प्राचीन काल मे चला आता है।
महावीर ने व्यक्ति के लिए जो सन्देश प्रस्तुत किया है, वह सदा मनुप्यो के हृदय में आशा तथा उत्साह का सचार करता रहेगा । प्राणी अपना प्रभु स्वय है । उसे अपने कर्मों के अतिरिक्त अन्य मिमी भी व्यक्ति पर आश्रय लेने की आवश्यकता नही है । जीव स्वावलम्बी है । जीव स्वतन्त्र है । वह अनन्त
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