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विदेशी संस्कृतियो मे अहिंसा
अहिंसा धर्म का प्रचार किया था । म० कम्पयूशस ने जनता को बताया था कि "मनुष्य मुख्यतः मांस, मदिरा और वासनामय इन्द्रिय भोगो को ओर दौडता है " " किन्तु जो मनुष्य धर्म मे परिपूर्ण होना चाहता है, वह ऐसे भोजन और आशायस की इच्छा नहीं करता है।" (Analects) म० लाउत्से ने भी ऐसा ही उपदेश दिया था—उन्होने कहा कि जो मनुष्य पूर्ण होना चाहता है, वह भूमि से उपजा आहार ग्रहण करता है और ईश्वरीय आनन्द भोगता है । (चआगरजे)
ईस्वी सन् से ५०० वर्षों पूर्व चीन मे मो-त्सु नाम के एक अहिंसावादी सन्त हो गए है । एक बार उन्होने सुना कि चीन देश का राजा सुङ्गवश के राजा पर आक्रमण करेगा, तो वह अपने स्थान से बराबर बीस दिन रात चलकर चीन देश के राजा के पास पहुंचे और उन्हे आक्रमण करने से रोका। उनका मत था कि प्रत्येक प्राणी प्रेम से रहे, युद्ध न करे।
चीनी भाषा मे अहिसा के लिए "पु-इह" शब्द प्रयुक्त होता है, जिसका अर्थ होता है "मा-हन" (किसी की हत्या न करो) धनात्मक रूप मे वही "मैत्री" हो जाती है, जिसे चीनी लोग "जन" कहते है। चीन देश मे "ई-चिंग' (Yrchrng) नामक ग्रन्थ वेदतुल्य मान्य रहा है । उसमे मानवहित के लिए यह उपदेश दिया है कि "मैत्री के द्वारा ही मानव की उन्नति होती है। लोक और परलोक मे जीवन सारभूत है । उसकी रक्षा करो । महात्मा का पद महान् है । उसकी रक्षा जैन (मैत्री) द्वारा होती है।
चीन देश मे मास भोजन का प्रचलन कम रहा है। प्रो० तानयुनशान जब पहले पहले म० गाधी से मिले तो उन्होने म० श्री जी के पूछने पर उनको यही बताया था कि "अधिकाश चीनी बहुत कम मास खाते है । देहाती चीनी तो प्राय पक्के शाकाहारी होते है । गऊ की हत्या चीन मे होती ही नही । किन्तु आज चीन अपने पूर्वजो के अहिंसा-मार्ग से विमुख हो रहा है । यह दुख का विषय है ।
अन्तिम शब्द
इस प्रकार सक्षेप मे ससार की विविध प्रमुख और प्राचीन संस्कृतियो मे अहिसा का अस्तित्व इस बात को स्पष्ट करता है कि प्राचीनकाल की मान्यता मे सत्य, दया, मैत्री आदि जीवन के बुनियादी सिद्धान्तो को आधारशिला माना गया था। साथ ही यह भी स्पष्ट होता है कि मानव-सस्कृति का श्री गणेश भारत के हिमालय तलहटी किंवा कैलाश पर्वत के शिखर से भ० ऋषभ या वृषभ देव द्वारा किया गया था। प्राय सभी सस्कृतियो मे भगवान् ऋषभ को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया गया था। अत भ० ऋषभ का व्यक्तित्व इतना महान और विशाल है कि उसकी सहायता से विश्व मे सास्कृतिक एकता और सार्वभौम प्रेम की स्थापना की जा सकती है। अत जैनो का कर्तव्य है कि इस दिशा में एक सही कदम उठाकर खोज और प्रचार को आगे बढाए ।