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गुगदेव श्री रत्न मुनि स्मृति ग्रन्य इस प्रकार प्राचीन अमेग्मिा में अहिमा का बोलबाला रहा था। आज भी कुछ यूरोपीय अमेरिकन शाकाहार और जीवदया का प्रचार वहाँ कर रहे है।
चीन की संस्कृति में हिसा
भारत और चीन का सास्कृतिक गम्बन्ध बहुत पुराना है और वह भी अहिगा पर आधारित ।' किन्तु साम्यवादी नये चीन ने पुराने गम्पर्क को आज उठार तास में ग दिया है। यह पुराने जमाने की वरवरता पर उतर आया है। चीन को गदबुद्धि मिल और यह अस्मिा को पुन पहनाने यही उपादेय है।
भारत का सास्कृतिक ऋण चीन पर अत्यधिक है, पापि भारत ने अरिंगा द्वारा चीन को गम्य बनाया था। आदिकाल मे चीन एक अनन्य दंश था। रिपयन गगुद्रतट पर बसे हुए मगोल जाति के लोग उपरान्त चीन मे आफर वसे और उन्ही के द्वारा गन्यता का प्रमार चीन में हुआ। जनवान्त्री में चीन की गणना बनायं देशो में की गई है ।' चीन पर भ० प्रपन को एक पुत्र ने मामन किया था। तीर्थदर अभिनन्दन और शातिनाथ के पूर्वभव की जन्मनगरिया मगनाय: देश में भी, जो मागोलिया हो सकता है। जैन मन्तो ने चीन में मत्य और अहिंसा का प्रचार किया था। चीनी त्रिपिटक में जैनधर्म विपक अनेक उल्लेख मिलते हैं। किन्तु उनमे एक उग्लेग विलक्षण है।
___ इस उल्लेस में एक जनगारन को अपनाया गया है । जिम म० बुद्ध भी स्वीकार करने दियाए गए है। भारतीय पिटक में वह नहीं मिलता । मन् ५१६६० में योधिन ने रममा अनुवाद नोनी भापा में किया था । जव जन गुरु अपने ८८० लास निग्रंन्य गिप्यो के साथ विहार करते हुए उज्जनी पहुंचे थे, तव उन्होंने यह उपदेश मम्राट प्रद्योत को दिया था। गमे पहले अहिगा नादि यता का उल्लेख है। उपरान्त इसमें बताया है कि एक आदर्श चत्रवर्ती सम्राट का धर्म क्या है। चक्रवर्ती नरेग नोगों के प्रति पशुवल का प्रयोग कर उनको भयभीत नहीं करता । मय ही देशों के लोग स्वत. ही चक्रवर्ती का आदर करते है । इस सूत्र में युद्ध का निषेध किया है । फिर भी यदि युद्ध लडना ही पड़े तो उसमे अहिंसा का ध्यान रखा गया है । साराशत इस जैनमूत्र को चीनवामियों ने अपने "त्रिपिटक" में स्थान देकर जैन अहिंसा की महत्ता को स्वीकार किया है।
किन्तु सन् ५१९ ई० से बहुत पहले ही भारतीय सत चीन पहुंच चुके थे। जैन और वौद्ध ऋपियो ने चीन देश के प्रदेशो में विहार करके अहिंसा को फैलाया था। परिणामस्वरुप चीन देश के महात्माओ ने भी
हिंदी विश्वकोश (कलकत्ता), भा० ६ ० ४१७ २ प्रश्न व्याकरण सूत्र (हैदरावाद) पृ० १४ 3 "वीर महावीर जयती वि०मा० ४ पृ० ३५३-३५४ एव० VOA. 1958 Sp.no. * Voice of Ahinsa. Tirthankara Aristanemi Sp. no, vol. V, pp 79-82
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