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________________ नागौरी लोका-गच्छ श्री मनोहर-सम्प्रदाय मे न किसी के प्रति द्वेप था और न किसी के प्रति मनोमालिन्य था। न किसी के प्रति पक्षपात की भावना थी और न किसी वर्ग विशेप के प्रति अहित कामना ही। यह तो केवल भगवान् महावीर के विशुद्ध धर्म की एक मात्र पुनर्जागरणा थी। स्थानकवासी परम्परा स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाती है। वह भौतिकवादी नही, विशुद्ध अध्या त्ममूलक परम्परा है। त्याग और तप, दम और सयम ही स्थानकवासी परम्परा के मूल तत्व है। फलत वह किसी भी प्रकार की जड पूजा मे विश्वास नहीं करती। एकमात्र शुद्ध चैतन्य तत्व ही उसकी साधना पद्धति का मुख्य लक्ष्य है। किसी भी प्रकार के बाह्य आडम्बर मे विवेकशून्य क्रियाकाण्ड मे उसकी धर्म श्रद्धा नही है। उसके विचार मे धर्म का आधार भौतिक नही, मनुष्य की आन्तरिक अध्यात्म भावना है। अहिसा और अपरिग्रह स्थानकवासी जैन-सस्कृति के वे मूल स्वर है, जिनके उद्घोपको मे पूज्य श्री मनोहरदास जी का भी प्रमुख स्थान है। एतदर्थ आज हम उनके चरणो मे सभक्ति भाव वन्दना करते है । श्रद्धावनत होते है। प्राचार्य श्री भागचन्द्रजी आप बीकानेर के रहने वाले और जाति के ओसवाल थे। आपने दृढ श्रद्धा और निर्मल वैराग्य भाव से पूज्य श्री मनोहरदास जी के चरण कमलो मे दीक्षा ग्रहण की थी। आपका श्रुतज्ञान गम्भीर था, क्रियाकाण्ड कठोर था और तप साधना उन थी। सिंघाणा के पर्वत पर गुरुदेव के साथ आपने भी चार महीने तक मास क्षमण की तप साधना की थी। यमुनापार (उत्तर प्रदेश) के बडौत, बिनौली, कांधला आदि अनेक क्षेत्र आपके द्वारा ही प्रतिवोधित हुए थे। अग्रवाल जाति मे स्थानकवासी जैन परम्परा के बीजारोपण करने में आपका योगदान चिरस्मरणीय है। धर्म-प्रचार यात्रा में आपको अनेक कष्टो का सामना करना पड़ा, परन्तु आपकी सहज क्षमता, सहनशीलता और निर्दम्भ धर्मनिष्ठा का वह दिव्य प्रभाव होता था कि अन्तत सफलता आपके चरण चूमती ही थी। काधला प्रतिबोध की घटना है । शरत्काल । भयकर शीत । पूज्य श्री भागचन्द्र जी, अपने योग्य शिप्य सीताराम जी के साथ धर्म प्रचार करते हुए काधला क्षेत्र में पहुचते हैं। सन्ध्या के समय सूर्य अस्ताचल की ओर । सर्वथा अपरिचित | कहाँ ठहरे ? किसी ने भी ठहरने के लिए स्थान न दिया । एक भद्र वैश्य ने कहा-"आप मेरी दूकान के आगे के इस छप्पर मे खडे रहिए । जरा घर हो आता हूँ। फिर कही ठहरने की ठीक व्यवस्था पर दूंगा।" वैश्य जल्दी मे कह कर चला गया, किन्तु वापस नहीं लौटा। मुनि युगल रात भर खडे ही रहे, न बैठे और न सोए। प्रात काल वैश्य आया, तो आश्चर्य से पूछा, महाराज बहुत जल्दी जा रहे है ? पूज्य श्री ने प्रसन्न-मुद्रा मे कहा -- 'भाई, अभी तो आना ही अच्छी तरह से नहीं हुआ है, जाने की क्या बात?" "फिर कमर बाँध कर खडे क्यो है ?" "जब से आए है, खडे ही है, बैठे कहा ?"
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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