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________________ गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ गती धर्म-क्रान्ति की शती है, साधु जीवन के दिव्य-रूप-परिवर्तन की शती है। ऐसा मालूम होता है, साधना के महासागर मे सब ओर प्रचण्ड ज्वार आ गया था। यह आचार क्रान्ति स्थानकवासी परपरा के नाम से जैन इतिहास का वह महत्त्वपूर्ण स्वर्ण-पृष्ठ है, जिसमे पूज्य श्री मनोहरजी का नामोल्लेख अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है। पूज्य श्री मनोहर जी अपने युग के एक महान् तत्वज्ञ, विचारक, एव उन क्रियाकाडी मुनि थे। ज्ञान एव क्रिया, आचार एव विचार दोनो की ही आपने उत्कट, कठोर और प्रखर साधना की। शिथिलाचार की घन-घटाएं छिन्न-भिन्न हो गई । शुद्धाचार का सूर्य पुन गगनागन मे अपने पूर्ण तेज से चमकने लगा। आपने दूर-दूर तक की विहार-यात्रा करके शुद्ध धर्म और शुद्धाचार का व्यापक प्रचार एवं प्रसार किया। आप नागौर से क्रियोद्धार की अमर-ज्योति लेकर अजमेर, कुचामन, जयपुर, खडेला, नारनौल, महेन्द्रगढ, दादरी, भिवानी, खेतडी, सिंघाणा आदि अनेक क्षेत्रो मे पधारे और भव्य आत्माओ को सन्मार्ग का उपदेश दिया। विहार-यात्रा मे अनेकानेक परीषह और उपसर्ग आए, विरोधी पक्ष की ओर से निर्मम यातनाए मिली, परन्तु आप निर्विकार भाव से अपने स्वीकृत पथ पर बढते ही रहे । न कही, लडखडाए, न कही रुके और न कही थके । सिंघाणा (शेखावटी) का गिरिराज अब भी आपकी उस कठोर साधना का साक्षी है, जो आपने चार मास मे केवल चार बार आहार ग्रहण कर पहाड के सबसे ऊँचे शिखिर पर की थी और जिसके प्रभाव से सिंघाणा नगर के तीन सौ के लगभग अग्रवाल परिवार जैन धर्म मे दीक्षित हुए थे। आपके जादूराव, नानक चन्द आदि पैतालीस शिष्य हुए, जिनमे भागचन्द्रजी प्रमुख थे। कुछ विद्वानो का मत है कि आप क्रियोद्धारक पूज्य श्री धर्मदास जी महाराज के सम्पर्क मे भी रहे है। श्री धर्मदास जी महाराज से सम्बन्धित वाईस सम्प्रदाय के प्रवर्तको मे पूज्य मनोहर जी के नाम से आप का भी उल्लेख मिलता है। पूज्य मनोहरदास जी से स्थानकवासी परम्परा मे मनोहर सम्प्रदाय का प्रारम्भ हुमा। मूल मे यह सम्प्रदाय राजस्थान की होकर भी उत्तर प्रदेश तथा पजाब के कुछ भूभागो में खूब फली-फूली है। इस सम्प्रदाय मे प्रारम्भ से ही विद्वान, कवि, लेखक, प्रवक्ता, त्यागी, तपस्वी और सयमी सतो की पावन धारा प्रवाहित होती रही है। मनोहर सम्प्रदाय के अनेक ज्योतिधर मुनिराज ऐसे हुए है, जिन पर एक क्या, अनेक स्वतन्त्र रचनाएँ लिखी जा सकती है। __ धर्मवीर लोकाशाह द्वारा प्रेरणा प्राप्त स्थानकवासी परपरा के क्रियोद्धारक मुनिवरो के सम्बन्ध में प्रसगवश यहाँ एक स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है। इन महापुरुषो ने कोई नया धर्म खडा नही किया, और न उनकी ओर से ऐसा कोई दावा ही कभी किया गया है। पुरातन परम्परा मे हीन आचार का उचित सशोधन करना, शिथिल क्रिया को कठोर तथा प्रखर बनाना, समाज मे विशुद्धाचार को नये सिरे से स्फूर्ति, चेतना और जागृति पैदा करना ही उनका एक मात्र ध्येय था। साधुजीवन मे जो एक प्रकार की जडता और आडम्बर-प्रियता उत्पन्न हो गई थी, उन्होने उसी को दूर कर शुद्ध साधुचर्या का पय प्रशस्त किया। इसी को क्रियोद्धार कहा जाता है। क्रियोद्धार की इस आत्मलक्षो विशुद्ध प्रक्रिया ३२
SR No.010772
Book TitleRatnamuni Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni Shastri, Harishankar Sharma
PublisherGurudev Smruti Granth Samiti
Publication Year1964
Total Pages687
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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