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गुरुदेव श्री रत्न मुनि ग्मृति-अन्य
आदर से निमभित किया जाता था । उन में जैन और बोट माधु भी होने ये।ग मागृतिक सम्पर्क का मुफल यह हुआ कि ईरान में अध्यात्मवाद जगा और जीवदया की भाग वही । गूफी गावियों ने आवाज बुलन्द की कि
"ता न गरदद नफस तावे व्हरा, फंद या यावी दिले मजम्हरा। मुर्गे जा अज हरो तन यावद रिहा,
गर वतेग लफुगी ई अजदहा।" अर्थात-"जब तक कि नफम (इन्द्रिया) आत्मा व में नहीं मानी, नव ता ददय का आतापसताप दूर नहीं हो सकता, गरीर गम्बन्ध में आत्मा मुक्त हो जाए, गदि ग अजगर (नाग) का वैगम्य के खड्ग से मार डाला जाए।"
अध्यात्मवाद ने लोगों के हृदयो को दयालु बना दिया। गृफी गायियों ने आंगा गीत गाए, एक कवि ने जीव-रक्षा के लिए अपने देशवागियो गे कहा
"अहिंसा रोरम बल्फि मा परम,
जेरे कदम तो हमार जा अस्त ।" अहिमा से चला, बल्कि चलो ही नहीं नो और भी अन्टा है, या कि मेरे घर के नीन हमारी जानदार प्राणी है।"
भ० महावीर ने ईपिय ये उपदेश में यही कहा था। एर अन्य मूफी अस्मिा धर्म को पालने की महत्ता को बताने के लिए एक बकरी के माध्यम में बडी मूम-बूझ की बात कहता है। जिहालम्पटता के कारण हिमा मे फैमने का परिणाम कष्टदायक ही होता है। यही बकरी कहती है
'पुनीदा अम फि करसाव गोसफदे गुफल, दारा जमा कि गिलुपश-य-तेग तेज पुरीद । सजाए हर खास-ओ-सरे कि खुरद दाद,
फसे कि पहरुए चरव खुरद ने पुरीद ॥" कवि कहता है कि एक दफा मैने मुना, "एक बकरी की गरदन पर जब कमाई ने तेज छरी का वार करना चाहा, तो वकरी ने उससे कहा- भाई, मै तो देस रही हूँ कि हरी घास और हरे पौधे साने की सजा मुझे क्या मिल रही है ? अरे, मेरो गरदन ही काटी जा रही है । अव कस्माब भाई, जरा सोचो तो उस व्यक्ति का क्या हाल होगा, जो मेरा मास सावेगा?"
'हफुमचद अभिनन्दन ग्रन्थ (दिल्ली) पृ० ३७४ व ३७५
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