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विदेशी संस्कृतियो मे अहिंसा
यह शिक्षा जैनधर्म के रंग मे रगी हुई है। क्योकि जैन धर्म मे वनस्पति मे भी जीव माना है । इसीलिए जैनी हरित वनस्पति को खाने का भी ध्यान रखते है। बकरी ने जानदार हरी घास खाई अर्थात् जानदार वनस्पति की हिसा की मानो उसी का कटु फल उसे कसाई के हाथ से मिलता है । फिर जो लोग उसकी हिंसा करेंगे, उनका क्या हाल होगा ? यह उल्लेख ईरानी जनजीवन नर अहिंसा की गहरी छापको प्रगट करता है ।
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साराशत ईरान की संस्कृति पर भारतीय सतो का गहन प्रभाव पडा था— जैन अहिसा ईरान के कोने कोने मे फैली थी । काश आज का ईरान भी अहिसा के इस महत्व को पहिचाने ।
अमेरिका की प्राचीन संस्कृतियो में अहसा
प्राचीन अमेरिका का सारकृतिक सम्पर्क भारत से रहा प्रतीत होता है । भारतीय मध्य एशिया से दक्षिण एशिया होते हुए प्राचीन अमेरिका मे पहुँचे थे, यह अनुमान किया जाता है। आधुनिक शोध मे बताया है कि प्राचीन अमेरिका मे क्रमश तीन सस्कृतियो का अस्तित्व मिलता है - ( १ ) मय-सस्कृति, (२) इका-सस्कृति और (३) अजेतक सस्कृति ( Ajters) मय-संस्कृति का सम्बन्ध मयलोगो से था । मयलोग जैनपुराणो के अनुसार विद्याधर वश के अहिंसक वीर थे, जो ससार के विभिन्न भागो मे फैले थे। श्री चिमनलाल जी ने अपनी पुस्तक "हिन्दू अमेरिका" मे यह सिद्ध किया है कि मेक्सीको आदि मे बसे मय लोग भारतीय थे । उनके रीति-रिवाज भी भारतीय हिन्दू और जैनो के समान थे । वे जीवदया के प्रतिपालक थे । बैरन हम्बोल्ट ने अमेरिका के पुरातत्व मे भारतीय अवशेष ढूंढ निकाले थे । मैक्सीको मे क्वेत्जल कोट्रले ( Quctzal coatle) की मूर्ति को देखते ही तीर्थङ्कर ऋषभ की मूर्ति का स्मरण हो उठता है । मैक्सिको के यह पुराने देवता थे। श्री एम० लुशियन एडम के मतानुसार व्केत्जल कोट्रले गौर वर्ण और लम्बे कद के आर्य थे, जिनका विशाल माथा, बडी आखे, और लम्बे काले बाल थे । वह शील और शाति के आगार थे । उनको नरबलि अथवा पशु बलि ग्राह्य नही थी— उनकी पूजा नैवध, पुष्प और गध से की जाती थी। उन्होने सभी प्रकार की हिसा और युद्धो का निषेध किया था । " यह वर्णन भ० ऋषभ से मिलता-जुलता है - लम्बे काले बाल उनकी खास विशेषता थी, जिनके कारण वह "केशी" कहलाते थे और उनकी मूर्तियो पर यह बाल कधी तक दर्शाए जाते रहे । अहिंसा के वह आदि प्रवर्त्तक थे ही - पुष्पादि से उनकी पूजा की जाती है ।
भ० ऋषभ के निर्वाणस्थान कैलाश पर्वत पर इन्द्र ने पहला स्तुप बनाया था, यह जैनो की मान्यता है । निस्सदेह बौद्धो से बहुत पहले ही जैनो ने स्तूप बनाने प्रारंभ कर दिए थे - बौद्ध स्तूपो से प्राचीन जैन स्तूपो का पता भी चला है। मध्य अमेरिका के पुरातत्त्व मे भी ऐसे स्तूप मिले हैं। स्पेंस
↑ "Voice of Ahinsa"-Indo-American Cultural Special Number, December 1959, PP 439-440
"The Golden lotus August, 1963, P. 127.
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