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विदेशी संस्कृतियो मे अहिंसा
"सौ जा से हुआ मौतिकद साहिबे दीनदार, बोला वह कदमे पाक मे गिरकर कई बार । बरितल नही रहता जो दिखाता है असरेहक, बेशक है खुदा एक, रसूल आप है बरहक | लो मै अब मुसलमान हूँ मुंह कुफ से मोडा ,
मै छूट गया कुफ से, हिरनी को भी छोडा ।" इस प्रकार हजरत मुहम्मद सा० की जात पाक से दयाधर्म का विकास होता था।
भारत और पारस्यका सास्कृतिक आदान-प्रदान बहुत पुराना है। पडोसी होने के कारण भारत का व्यापार पारस्य से बहुत होता था। दोनो देशो के निवासी एक दूसरे के आचार विचार से प्रभावित थे । जब अन्तिम तीर्थङ्कर भ० महावीर के सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होने की खबर पारस्य मे फैली तो उनके दर्शन करने के लिए कई ईरानी भारत आए । मगध सम्राट श्रेणिक बिम्बसार के पुत्र राजकुमार अभय के मित्र ईरान के शाहजादे आदराक थे । उन्होने मुना तो वह भी भारत आए और भगवान् के दर्शन किए। भ० महावीर के उपदेश का प्रभाव उन पर ऐसा पडा कि वह जैन मुनि हो गए और अहिंसा धर्म का प्रचार भारत एव ईरान मे करते रहे।
उपरान्त सम्राट अशोक और सम्राट सम्प्रति ने भी अपने धर्म रज्जुक और भिक्षुक वहा अहिंसा का प्रचार करने के लिए भेजे थे। ईरानी जन-जीवन मे एक नई लहर आई थी। म० जरदस्त ने पहले ही अहिंसा की प्राण प्रतिष्ठा ईरान मे पशुबलि का विरोध करके की थी। ईरान के शाह दारा(Darins) ने अपनी प्रजा को लक्ष्य कर अशोक की तरह पापाणो पर अहिंसा पालने का आदेश अकित कराया था। तख्तेजमशेद नामक स्थान पर एक ऐसा लेख आज भी मौजूद है।
मध्यकाल मे जैन दार्शनिको का एक सघ बगदाद मे जम गया था, जिसके सदस्यो ने वहाँ करुणा और दया, त्याग और वैराग्य की गगा बहा दी थी। "सियाहत नामए नासिर" के लेखक की मान्यता थी कि इस्लाम धर्म के कलन्दर तबके पर जैन धर्म का काफी प्रभाव पड़ा था। कलन्दर लोग अपने प्राणो की बाजी लगाकर अहिंसा और दया को पालते थे, ऐसे अनेक उदाहरण भी मिलते है । अलविया फिर्के के लोग हजरत अली की औलाद से थे वे भी मास नही खाते थे और जीव दया को पालते थे। ई० ६ वी-१० वी शताब्दी मे अब्बासी खलीफाओ के दरबार मे भारतीय पडितो और साधुओ को बडे
१ हिरनीनामा देखो २ कृष्णदत्त बाजपेयी कृत "भारतीय व्यापार का इतिहास" पृ० ४८-५२
जैनसिद्धात भास्कर (आरा), भा० १७ पृ० १४-१६ । अहिंसा और उसका विश्वव्यापी प्रभाव, पृ० ५३-५४ ५ हुकुमचद अभिनदन अथ (दिल्ली), पृ० ३७४ व ३७५
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