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विदेशी संस्कृतियो मे अहिंसा
आर० फरलाग सा० ने भी अपनी खोज मे ओकसियना (Oksrana) केस्पिया (Kasipna) एव बल्ख व समरकन्द के नगरो मे जैन धर्म के केन्द्र पाए, जहाँ से अहिंसा का प्रचार होता था।' इन जैन साधुओ का प्रभाव यहूदी लोगो पर ऐसा पडा कि उनमे ऐस्सिली" (Essenes) सम्प्रदाय का जन्म हुआ । ऐस्सिनी लोग बस्ती से दूर जगलो या पहाडो पर कुटी बनाकर रहते थे। जैन मुनियो की तरह अहिंसा को अपना खास धर्म मानते थे। मास खाने से उनको बेहद परहेज था। वे कठोर और सयमी जीवन व्यतीत करते थे । पशुबलि का घोर विरोध करते थे । रोगियो की सेवा करने मे आनन्द लेते थे । अपरिग्रह व्रती होकर सारी सम्पत्ति समाज की मानते थे। इन्ही मे से आगे चलकर ईसा मसीह एव अन्य ईसाई सन्त प्रगट हुए थे जिन्होने भी अहिसा का प्रचार किया । नये अहदनामे मे भी शाक और फलाहार को मानव का प्राकृत भोजन बताया और जीवदया का उपदेश दिया गया है (Genesis, I, 29)। अरब और ईरान की संस्कृतियो मे हिसा
प्राचीन काल में अफगानिस्तान तो भारत का ही एक अग था और वहाँ जैन एव बौद्ध धर्मों का प्रचार होने से अहिसा का अच्छा प्रचार था । ई० ६ वी ७ वी शताब्दी मे चीनी यात्री हुएनत्साग को वहाँ अनेक दिगम्बर जैन मुनि मिले थे।
अफगानिस्तान से मिला हुआ ईरान था। अरब भी दूर न था । इन दोनो देशो का सम्पर्क भारत से प्राचीन काल से था। दोनो देशो ने भारत से बहुत कुछ सीखा था, जिसका प्रभाव उनकी संस्कृतियो पर पडा था। भारतीय विद्वान ईरान को पारस्य कहते थे।
अरव का उल्लेख जैन आगम में मिलता है । भारत से अरव का व्यापार चलता था। जादिस अरव का एक बड़ा व्यापारी था-भारत से उसका व्यापार खूब होता था। भारतीय व्यापारी भी अरब जाते थे। जादिस का मित्र एक भारतीय वणिक था। वह ध्यानी योगी की मूर्ति भी अपने साथ अरब लाया और उसकी पूजा करता । जादिस भी प्रभावित हो, पूजा करने लगा। इस प्रकार वणिको द्वारा धर्म का प्रचार हुआ । उपरान्त मौर्य सम्राट सम्प्रति ने जैन श्रमणो भिक्षुओ के विहार की व्यवस्था अरब
और ईरान मे की, जिन्होने वहाँ अहिंसा का प्रचार किया। बहुत से अरब जैनी हो गए। किन्तु पास्य नरेश का आक्रमण होने पर जैन भिक्षु और श्रावक भारत चले आए। ये लोग दक्षिण भारत मे बसे और "सोलक" अरबी जैन कहलाए।
, Science of Comparative Religions, (1897) Intro, PP 8-33 २ हुकुमचद अभिनन्दन प्रथ, पृ० ३७४ ३ हुएनत्साग का भारत भ्रमण (प्रयाग), पृ० ३७
परिशिष्टपर्व, भा० २ पृ० ११५-१२४ * Formerly Jains were very numerous in Arabia
-Asiatic Researches, Vol-LX.P.284 जैन सिद्धान्त भास्कर, भा० १७, पृ०८५ फुटनोट
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