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गुरुदेव श्री रत्न मुनि स्मृति-ग्रन्थ
इनके निकट तत्वचर्चा करके यूनानी तत्ववेत्ताओ ने जो जान मचिन किया था, उसका प्रचार उन्होंने अपने देश में जाकर किया। यही कारण है कि यूनान में प्राचीन काल में ही नप, त्याग और मन्य, एय अहिंसा का प्रचार जनसाधारण में हो गया था।
स्ट्रेवो (Sthabo) ने लिखा है कि ईम्बी पूर्व ७ वी-छठी शताब्दियों के लगभग सलमागिम (xalmosus) और पिथागोरस के अहिंसा का जो प्रचार किया, उममा परिणाम यह हुआ कि एक मे धर्मवरिष्ठ लोगो का समुदाय अस्तित्व में आया, जो पत्नियों के विना (ब्रह्मचारी) रहने थे- उनके माथी मसिलोग भी ऐसी कोई चीज नही खाते थे, जिसमें जान हो (Thes abtained from rating anything that had hfe) होमर ( ७ वी० गती : पूर्व ) ने उमरी बर्न हो न्यायशील बताया था, जो प्राय दूध पीकर रहते थे और मपत्ति मचय करने की और में बिल्कुल उदासीन थे।' शैलमोशिम ने जैनो के अनुरूप हो जीवात्मा को अजर-अमर माना था जो ममार में परिभ्रमण करना है । पशुओ मे भी वह आत्मा मानने थे और कहते थे कि किमी भी प्राणी को पीटा मत पहुँनाओ।
स्व० ० शीतलप्रसाद जी का अनुमान था कि यूनानी तत्ववेत्ता पियागोरस ने तीरंदर पाप्यनाथ की शिप्य परम्परा से शिक्षा ग्रहण की थी और जैन नघ में वह मुनि पिहिताधव के नाम में प्रसिद हुए थे। उनकी मान्यताएं जैनो के अनुरूप ही थी और उनको नपम्या भी जैन मुनि जीवन को भनकानी थी-चे मौन व्रत पर अधिक जोर देते थे। उन्होंने मान-मदिग का निषेध किया था, जिसके कारण उनरी नाना प्रकार के कप्ट उठाने पड़े थे । किन्तु वे अहिंसा के प्रचार करने पर दृट रहे । यहाँ तक कि जैनो की तरह द्विदल को दही में मिलाकर नही माने थे, क्योंकि उमम जीवारागि उत्पन्न हो जाती है।' निस्सन्देह पिथागोरस पर जन-जीवन का गहरा प्रभाव पड़ा था, जिसका प्रचार उन्होंने यूनान में किया था।
प्रसिद्ध यूनानी तत्ववेत्ता अरस्तू (AIstotle) का भी मत या कि भोजन (Diet) के अनुसार ही जीवन की शैली बनती है । (Diet after determines the mote of life ) मीलिए वह मयम पालना उचित ठहराते थे।
पिथागोरस की अहिंसा-परम्परा को पिही (Pynho), टियोजनम (Diogenes),प्लेटो (Plato) इपीक्यूरस (Epicurus) आदि तत्ववेत्ताओ ने आगे बढाया था। पिरंहो उस समय भारत आया, जब भ० महावीर का सुखद विहार हो रहा था-उमने उनके म्याद्वाद सिद्धान्त का अध्ययन किया था। यूनान लौटने पर उमने एलिस (Elis) नामक स्थान पर रहकर जैन मुनि को जीवन चर्या का अभ्याम
J. G. R. Forlong, Science of Compartive Religions (1897) P 32. २ Ihid, Pp.35-36 3 "वीर" भा०२, पृ० ११ * Addenda to the confluence of opposites, P 3
The story of philosophy (New York), P. 68.
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