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विदेशी सस्कृतियो मे अहिंसा
४ तू कुशील सेवन नही करेगा ( Thou shalt not commit adultery)
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प्रोपध की तरह ये लोग "सब्वथ" ( Sabbath ) को पवित्र दिन मानते थे और उस दिन कोई भी सासारिक काम धन्धा नही करते थे स्मरण रहे कि मूल मे ये लोग सुमेर के निवासी थे, जो लोग भारतीय अहिसा से प्रभावित थे । अत सन्त मूसा का अहिंसावादी होना स्वाभाविक था । उनकी अहिसा के कारण शाकाहार का बहुत प्रचार हुआ था - लोगो ने मासमदिरा को छूना पाप समझा था । इसका प्रभाव बैबीलोनिया आदि के देशो पर भी पडा था । सन्त दनियाल (St Daniels) की कथा इसकी साक्षी है ।
जब बेबीलोनिया में बादशाह नबुश्चडनज्जर ( Nebuschadnazza1 ) शासनाधिकारी था, तब उसके राजप्रासादीय भोज पर कार्य करने के लिए सुन्दर और सुशील युवक ढूंढे गए। इनमे दनियाल नामक युवक अहिंसावादी - निराभिपभोजी था । ज्यो त्यो करके वह अपने अहिंसाव्रत पर दृढ रहा । किन्तु एक दिन वह वादशाह की पकड मे आ गया । बादशाह ने मास खाने का आदेश दिया, परन्तु वीर दनियाल ने उसे नही माना । हठात् उसे प्राणदण्ड दिया गया। शेरो की माद मे वह फैका गया, परन्तु भूखे शेर उसके पैर चाटने लगे । यह था, उसकी अहिंसा का चमत्कार ।"
निस्सन्देहसत मूंसा के अहिसा प्रचार का प्रभाव जन साधारण के जीवन पर पडा था। नरafe की प्रणित प्रथा सर्वथा मिट गई और पशु बलि भी बहुत कम हो गई । बल्कि लोग पीठी आदि के पशु बनाकर बलि देने लगे 12
ऐसा प्रतीत होता है कि बादशाह नबुशचडनज्ज्र पर इप घटना का गहरा प्रभाव पडा था । उसे अपने पूर्वजो का ध्यान आया - वह भारत आया और जैन तीर्थ स्वत गिरिनार की बदना करके वहा भ० नेमि का एक मन्दिर बनवाया । सौराष्ट्र मे प्रभासपट्टण से इन्ही बादशाह का एक ताम्रपत्र मिला है, जिसे डा० प्राणनाथ ने निम्न प्रकार पढा था—
"रेवा नगर के राज्य का स्वामी, सुजाति का देव, नबुश्चडनज्जर आया है। वह यदुराज के नगर ( द्वारिका ) मे आया है। उसने मन्दिर बनवाया • सूर्य देव नेमि कि जो स्वर्गमान रैवत पर्वत के देव है (उनको ) हमेशा के लिए अर्पण किया ।"
साप्ताहिक " जैन " - भावनगर भा० ३५ अक १५० २
बादशाह नवुश्चडनज्जर के अहिंसावादी होने का प्रभाव प्रजा पर पडना स्वाभाविक था और यह हुआ सत मूसा के प्रचार से । भारत से गई भ० ऋषभ की अहिसा उन देशो मे बराबर जीवित रही ।
"Ibid, pp. 90-107
H. G Wells, loc, cit, p. 73
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